Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन मुक्ति इसी पर्वत पर से हुई थी। वर्तमान में इसकी पहचान बिहार में हजारीबाग जिले की पार्श्वनाथ पहाड़ी से की जाती है, जहाँ भव्य जैन मन्दिर निर्मित है।
सार्शल (१३४.२५, १८४.२५)-कुवलयचन्द्र को अयोध्या से विजयपुरी जाने एवं वहाँ से लौटने पर बीच में सह्यपर्वत मिला था, जो विन्ध्यगिरि से लगा हुआ था। वह विन्ध्यपुरी से कांचीपुरी जाने के मार्ग में पड़ता था (१३५.५)। आवश्यकनियुक्ति (६.२५) में भी इसका उल्लेख हुआ है । भारत की सात पर्वत श्रेणियों में से सह्य एक पर्वत श्रेणी है। वर्तमान में यह सह्याद्रि के नाम से जाना जाता है । कावेरी नदी के पश्चिमीघाट के उत्तरीय भाग में यह स्थित है।' पास ही कृष्णवर्णा नदी बहती है।'
हिमवंत (४३.१८, १६)-हिमवंत का वर्णन करते हुए उद्योतनसूरि ने कहा है कि स्वतन्त्ररूप से विचरण करनेवाले महादेव के वाहन नन्दी की आवाज सुनकर गौरी के वाहन सिंह द्वारा क्रोधित होकर पाद प्रहार से शिलाखण्ड जहाँ तोड़ दिये जाते हैं वह श्वेतशिखर वाला हिमवंत सबसे रमणीय वस्तु है-(४३.१८, १६)। देवतात्मा हिमालय का अत्यन्त रमणीक वर्णन कालिदास ने कुमार-संभव में किया है और उसे शिव-पार्वती का निवासस्थल बताया है । उसकी धवलता के लिये मेघदूत की उनकी उपमा अत्यन्त प्रसिद्ध है-राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः । जैन-बौद्ध साहित्य में इसका पर्याप्त उल्लेख हुआ है। पालिसाहित्य में हिमवंत को पर्वतराज कहा गया है । इसे पाँच सौ नदियों का उद्गमस्थान माना गया है। वर्तमान भारत के उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत ही प्राचीन साहित्य में हिमवंत नाम से उल्लिखित हुआ है। उद्योतनसूरि ने इसे हिमगिरि भी कहा है, जो अपनी धवलता के लिये प्रसिद्ध था। अटवी एवं नदियाँ
उपर्युक्त वन एवं पर्वतों के अतिरिक्त उद्द्योतन ने कुव० में देवाटवी एवं विन्ध्याटवी का भी उल्लेख किया है। इनके सम्बन्ध में विशेष विवरण इस प्रकार है :
देवाटवी (१२३.३)-रेवा नदी के दक्षिण किनारे पर देवाटवी नाम की महाटवी है । वह अनेक वृक्षों से युक्त, अनेक शृगालों से सेवित होने के कारण भीषण तथा अनेक पर्वतों से शोभित है (१२४.४) ।
१. डे-ज्यो० डिक्श०, पृ० १७६. २. वही, पृ० १७१. ३. का० मी०, ८४.२६, २७ तथा ८५.१, २. . ४. मिलिन्दपन्ह, पृ० १११. ५. हिमगिरि व्व धवलं तं-कुव० १३८.१९ ६. तीए दक्खिणकूले देयाडई णाम महाडई-१२३.३