Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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भारतीय जनपद
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कहा गया है, जिसकी राजधानी विनीता (अयोध्या) थी । मध्यदेश के लोग न्याय, नीति, संधि-विग्रह करने में कुशल, बहुभाषी थे तथा 'तेरे-मेरे आउ' शब्दों का बोलचाल में अधिक प्रयोग करते थे ( १५२. २५) । आदिपुराण में भरत ने मध्यदेश के राजा को अपने अधीन किया था ( २९.४२ ) । मध्यदेश की सीमा कुरुक्षेत्र, प्रयाग, हिमालय और विन्ध्य के समीप में प्रवाहित होनेवाली सरस्वती नदी तक मानी गयी है । मनुस्मृति में गंगा और यमुना की मध्यवर्तिनी धारा मध्यप्रदेश के अन्तर्गत मानी गयी है । बौद्धसाहित्य के अनुसार पूर्व में कजंगल बहिर्भाग में महासाल, दक्षिण-पूर्व में सलावतीनदी, दक्षिण में सेतकत्रिक नगर, पश्चिम में थन नामक नगर और उत्तर में उसिरध्वज पर्वत मध्यदेश की सीमा थी ।
मरुदेश (१३४.३३, १७८ . १ ) – उद्योतनसूरि ने मरुदेश का तीन बार उल्लेख किया है । विन्ध्यपुरी से कांचीपुरी जानेवाला सार्थं मरुदेश जैसा था, जिसमें ऊँटों का समूह भूमकर चल रहा था । मरुदेश के निवासी मारुक विजयपुरी की मंडी में उपस्थित थे, जो बाँके, जड़, अधिक भोजन करनेवाले तथा कठिन एवं स्थूल शरीरवाले थे और 'अप्पां-तुप्पा' बोल रहे थे (१५३.३) । तीसरे प्रसंग में कहा गया है कि जैसे मरुस्थली में तृष्णावश सूखे कण्ठवाले पथिक के लिए रास्ते के तालाब का पानी भी शीतल जल सदृश होता है वैसे ही संसार रूपी मरुस्थली में तृष्णा से अभिभूत जीव को संतोष शीतल जल एवं सम्यक्त्व सरोवर सदृश है (१७८.१) ।
इससे ज्ञात होता है कि मरुदेश में ऊँटों की बहुतायत एवं पानी का संकट प्राचीन समय में भी विद्यमान था । विष्णुधर्मोत्तरपुराण में (१.१६२, २) में दाशेरक देश के साथ मरुदेश का वर्णन किया गया है। डा० सरकार ने दाशेरक की समता मरु अथवा मारवाड़ से की है ।" दाशेरक ऊँट को भी कहते हैं, इससे भी यह मारवाड़ प्रदेश का द्योतक है ।
महाराष्ट्र ( १५०.२०, १५३.१० ) - महाराष्ट्र के छात्र एवं व्यापारी विजयपुरी में उपस्थित थे, जिन्हें 'मरहट्ठ' कहा गया है । उद्योतनसूरि ने विनीता नगरी के विपणिमार्ग के हलदी बाजार की उपमा मराठिन युवती से दी है। ( ८.४) । अंगसौष्ठव के लिए महाराष्ट्र की युवतियों की उपमा भारतीय - साहित्य गंगा-सिंधूय मज्झयारम्मि ।
१. वेयड्डू - दाहिणेणं
अथ बहुमज्झ - देसे मज्झिम- देसो त्ति सुपसिद्धो । – कुव० ७.६ २. हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये यत्प्राग्विनशनादपि ।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ॥ - मनु०, २- २१.
डे० - ज्यो० डिक्श०, पृ० ११६.
मरुदेसो जइसओ उद्यम संचरंत - करह- संकुलो, कुव० १३४.३३. स० ― स्ट० ज्यो०, पृ० २६.
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