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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः [समीक्षा]
'अपाय, भयहेतु, आख्याता, प्रभव' आदि की अपादानसंज्ञा पाणिनि ने आठ सूत्रों द्वारा की है - "ध्रुवमपायेऽपादानम्, भीत्रार्थानां भयहेतुः, पराजेरसोढः, वारणार्थानामीप्सितः, अन्तझै येनादर्शनमिच्छति, आख्यातोपयोगे, जनिकर्तुः प्रकृतिः, भुवः प्रभवः" (अ०१।४।२४ -३१) । कातन्त्रकार ने दो ही सूत्र बनाए हैं । ज्ञातव्य है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि आदि ने प्रथम सूत्र के अतिरिक्त ७ सूत्रों को प्रपञ्चार्थ माना है । वस्तुतः अपाय को बाह्य और बौद्ध मान लेने पर अन्य सूत्र अनावश्यक ही कहे जा सकते हैं । कातन्त्र के व्याख्याकारों ने भी उन्हें आवश्यक नहीं माना है । कातन्त्रविस्तरकार का यह अभिमत ध्यातव्य है
प्रत्याख्यातुमिहाख्यातमिति तन्त्रान्तरोदितम् ।
स्वीकर्तुमथवाऽस्माकं पक्षपातो न वियते ॥ किञ्च, तन्त्रान्तरप्रणीतानां सूत्राणां परमाग्रहात् । प्रत्याख्यानेन यत्नस्य द्वैगुण्यमुपजायते ॥
(मञ्जूषापत्रिका व०१२, अं०९)। अपादान के तीन भेद किए जाते हैं - १. निर्दिष्टविषय = ग्रामाद् आगच्छति । २. उपात्तविषय = बलाहकाद् विद्योतते विद्युत् । ३. अपेक्षितक्रिय= पाटलिपुत्रात् ।
इसे महासंज्ञा होने के कारण अन्वर्थ माना जाता है - 'अपकृष्य बुद्ध्या पृथक्कृत्य वस्तु आदीयते बुद्ध्या गृह्यते' ।
नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका पूर्वाचार्यसंमत होना सिद्ध होता है।
तत् प्राहुः सप्तविधं पदकारकसंयुतं प्रथितसाध्यम् ।
निर्देशः सम्प्रदानापादानप्रभृतिसंज्ञाभिः॥(१४।२३)। चान्द्र आदि अर्वाचीन व्याकरणों में एतदर्थ प्राप्त वचन इस प्रकार हैं