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कातन्त्रव्याकरणम
[समीक्षा]
'शिव +अण्, उपगु +अण्, गर्ग +ण्य' इस स्थिति में 'शैवः, औपगवः, गार्ग्यः' शब्दरूपों के सिध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों मे आदि स्वर की वृद्धि की गई है । पाणिनि का सूत्र है - "तद्धितेष्वचामादेः" (अ०७/२/११७) । 'गार्यः, वाशिष्ठः' आदि शब्दों में ह्रस्व अकार के स्थान में दीर्घ आकार वृद्ध्यादेश से नहीं होना चाहिए , क्योंकि कातन्त्रव्याकरण में “आरुत्तरे च वृद्धिः" (३/८/३५) से 'आर्' की वृद्धिसंज्ञा होती है, केवल आकार की नहीं, इसका उत्तर वृत्तिकार आदि व्याख्याकारों ने दिया है - सूत्रस्थ 'आदौ' पद में 'आ +आदौ' इस प्रकार का पदच्छेद करके उक्त प्रयोगों में दीर्घ आकारादेश उपपन्न होता है। इसी प्रकार वृत्तिकार आदि ने उत्तरपद तथा उभयपदों की वृद्धि का निर्देश किया है |
[विशेष वचन] १. अवर्णः कण्ठ्यः सर्वमुखस्थानमित्येके (दु० टी०)।
२. आ इति लुप्तप्रथमानिर्देशः आ आदावित्याकारस्य दीर्घात् परलोपस्तेन वृद्धिराकारश्च प्रवर्तते इति (वि० प०)।
३. सह णेन वर्तते इति सणः । ननु सहशब्देनात्र विद्यमानार्थः । विद्यमानत्वस्य सहयोगस्य चाघटनात् ।उच्यते - णकारप्रध्वंसेऽपि स्मृतिसम्भवादुभयार्थो घटते (क० च०)।
[रूपसिद्धि
१. शैवः। शिवस्यापत्यमयं वेत्यादि । शिव +अण् +सि | अपत्य अर्थ में "वाऽणपत्ये" (२/६/१) से अण् प्रत्यय, ण् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, प्रकृत सूत्र से आदि स्वर को वृद्धि, "इवर्णावर्णयोर्लोपः स्वरे प्रत्यये ये च' (२/६/४४) से वकारोत्तरवर्ती अकार का लोप, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा “रेफसोर्विसर्जनीयः" (२/ ३/६३) से स् को विसगदिश ।
२. औपगवः । उपगोरपत्यं पुमान् । उपगु +अण् +सि । पूर्ववत् प्रक्रिया के अतिरिक्त "उवर्णस्त्वोत्वमापाद्यः" (२/६/४६) से गकारोत्तरवर्ती उकार को ओकार तथा “कार्याववावावादेशावोकारौकारयोरपि" (२/६/४८) से ओ को अवादेश ।