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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
'न अजः इति अनजः, न अश्वः इति अनश्वः' आदि शब्दों की सिद्धि के लिए पाणिनीय व्याकरण में पहले नघटित नकार का लोप करके नुडागम किया जाता है - "नलोपो नत्रः, तस्मान्नुडचि" (अ० ६/३/७३,७४) । कातन्त्रकार ने ऐसी स्थिति में न और उससे परवर्ती स्वर वर्ण का परस्पर विपर्यय करके रूपसिद्धि की है । इससे स्पष्ट है कि कातन्त्रीय प्रक्रिया में पर्याप्त सरलता सन्निहित है । यहाँ पाणिनीय निर्देश उपहासास्पद भी कहा जा सकता है जो उन्होंने एक नकार का लोप करके दूसरे नकार को स्थापित करने के लिए नुडागम किया है।
[रूपसिद्धि]
१. अनजः। न अजः । नञ् + अज + सि । नञ्तत्पुरुष समास, विभक्तिलोप, प्रकृत सूत्र द्वारा ‘न-अ' का विपर्यय, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२/३/६३) से सकार को विसगदिश ।
२. अनजम् । अजस्याभावः । नञ् + अज + सि | अव्ययीभाव समासादि, 'नअ' का विपर्यय, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा नपुंसकलिङ्ग में सिलोप-मु आगम ।
३. अनजकः । न विद्यतेऽजो यस्मिन् । नञ् + अज + सि । बहुव्रीहि समासादि, 'न-अ' को विपर्यय, समासान्त कप्रत्यय, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा स् को विसगदिश ।।३६०।
३६१. कोः कत् [२/५/२४] [सूत्रार्थ] तत्पुरुष समास में 'कु' को 'कत्' आदेश होता है ||३६१ । [दु० वृ०]
कुशब्दस्य तत्पुरुषे स्वरे कद् भवति । कुत्सितोऽश्वः कदश्वः । एवं कदुष्ट्रः । तत्पुरुष इति किम् ? कूष्ट्रो देशः ।।३६१ ।
[दु० वृ०]
कोः कत्० । कुशब्दः पृथिवीवचनोऽप्यस्ति, तस्य न भवति । कौ उदयः कूदय इति । यस्मादुत्तरत्रेषदर्थे कुशब्दस्येति विशेषणमाह - अतोऽव्ययस्यैव ग्रहणं दृष्टकल्पना