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कातन्त्रव्याकरणम्
३९७. किमः [२/६/३१]
[सूत्रार्थ]
सप्तम्यन्त 'किम्' शब्द से ह प्रत्यय होता है ।।३९७। [दु० वृ०] किमः सप्तम्यन्ताद्धो भवति वा । कस्मिन्, कुह । छन्दस्येवेत्यन्ये || ३९७। [दु० टी०]
किमः । अयमपि त्रापवादः । कुत्रेति कैश्चिदिष्यते । भाष्यकारस्य पुनरसाधुरेव । इह तु कुहशब्दो भाषायामप्याह - वृद्धिप्रयुक्तश्च दृश्यते ।। ३९७।
[वि०प०]
किमः । “तहोः कुः" (२/६/३३) इति कुभावः । छन्दस्येवेति अन्य इति | सर्ववर्मणस्तु वचनाद् भाषायामप्यवसीयते ।। ३९७।
[क० च०] अयमपि त्रापवादः ।कुत्रेति कैश्चिदिष्यते,तद् भाष्यकारस्याप्यसाध्विति टीका ||३९७। [समीक्षा
सप्तम्यन्त किम् शब्द से 'कुह' शब्द के साधनार्थ 'ह' प्रत्यय का विधान दोनों ही व्याकरणों में किया गया है । पाणिनि का सूत्र है – “वा ह चच्छन्दसि" (अ०५/ ३/१३)। तदनुसार केवल वेद में ही 'कुह' शब्द का प्रयोग साधु माना जाएगा, परन्तु शर्ववर्मा तो इसे लौकिक प्रयोग मानते हैं । टीकाकार दुर्गसिंह तथा कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण तो इस 'ह' प्रत्यय को 'त्र' का अपवाद मानते हैं । इस प्रकार उनके मत से 'कुत्र' प्रयोग असाधु है । टीकाकार ने अपने वचन के समर्थन में भाष्यकार को प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया है - "कुत्रेति कैश्चिदिष्यते, भाष्यकारस्य पुनरसाधुरेव" । काशिकाकार परवर्ती सूत्र “वा ह च च्छन्दसि" (अ०५/३/१३) में पठित 'वा' की पूर्ववर्ती सूत्र “किमोऽत्" (अ० ५/३/१२) में अनुवृत्ति करके 'कुत्र' शब्द का भी साधुत्व प्रदर्शित करते हैं – “त्रलमपि केचिदिच्छन्ति - कुत्र । तत् कथम् - उत्तरसूत्राद् वावचनं पुरस्तादपकृष्यते" (का० वृ० ५/३/१२)।