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नामचतुष्टयाध्याये षष्ठस्तद्धितपादः [समीक्षा]
सर्वस्मिन् अर्थ में सर्वत्र, तस्मिन् अर्थ में तत्र, यस्मिन् अर्थ में यत्र तथा बहुषु अर्थ में बहुत्र आदि शब्दों के साधनार्थ कातन्त्रकार ने 'त्र' प्रत्यय एवं पाणिनि ने 'वल्' प्रत्यय किया है- “सप्तम्यास्त्रल्" (अ० ५।३।११०) । यहाँ ल् अनुबन्ध लित् स्वर के विधानार्थ किया गया है ।
[रूपसिद्धि
१. सर्वत्र । सर्वस्मिन्निति । सर्व + डि+त्र । प्रकृत सूत्र से 'त्र' प्रत्यय, “तत्स्था लोप्या विभक्तयः” (२।५।२) से विभक्तिलोप, “धातुविभक्तिवर्जमर्थवल्लिङ्गम्" (२।१।१) से लिङ्गसञ्ज्ञा, सिप्रत्यय तथा “अव्ययाच्च" (२।४।४) से उसका लुक् ।
२-४. तत्र । तस्मिन्निति । तद् + ङि +त्र । यत्र | यस्मिन्निति । यद् + डि+त्र | बहुत्र | बहुष्विति । बहु + सुप् +त्र । पूर्ववत् प्रक्रिया ||३९५।
३९६ . इदमो हः [२।६।३०] [सूत्रार्थ] सप्तम्यन्त इदम् - शब्द से ह - प्रत्यय होता है ।।३९६। [दु० वृ०] इदमः सप्तप्यन्ताद्धो भवति वा । अस्मिन्, इह ।।३९६। [दु० टी०] इदमो हः । त्रापवादोऽयम् ।। ३९६। [समीक्षा]
'अस्मिन्' इस अर्थ में 'इह' शब्द के साधनार्थ दोनों ही व्याकरणों में हप्रत्यय का विधान किया गया है । पाणिनि का भी समान सूत्र है- “इदमो हः" (अ०५/३/११)। अतः उभयत्र साम्य ही कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि]
१. इह | अस्मिन्निति । इदम् +ङि +ह | प्रकृत सूत्र से 'ह' प्रत्यय, "तत्स्था लोप्या विभक्तयः" (२/५/२) से ङिविभक्ति का लोप, “तत्रेदमिः" (२/६/२५) से इदम् को इ आदेश, “धातुविभक्तिवर्जमर्थवल्लिङ्गम्" (२/१/१) से लिङ्ग संज्ञा, सि प्रत्यय तथा “अव्ययाच्च" (२/४/४) से उसका लुक् ।।३९६।