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नाभवतुष्टयायाये षष्ठस्तद्धितपादः
४३७ उपबाहूपबिन्दुपाठो ज्ञापयति – बाह्वादिगणे 'ग्रहणवता लिङ्गेन तदन्तविधिर्नास्ति' (पु० परि० ७८) इति ।।३७२।
[समीक्षा]
'बाहु, बिन्दु' आदि अकारान्तभिन्न शब्दों से अपत्य अर्थ में 'इ' प्रत्यय करके 'बाहविः, बिन्दविः' आदिशब्दरूप दोनों ही व्याकरणों में सिद्ध किए गए हैं । 'उकारान्त, आकारान्त, व्यञ्जनान्त' आदि अनेक प्रकार के शब्दों को बाह्वादिगण में उभयत्र पढ़ा गया है । पाणिनि ने ञ् अनुबन्ध तथा शर्ववर्मा ने ण् अनुबन्ध की योजना वृद्धिविधानार्थ की है।
[विशेष वचन]
१. बाहुबिन्दुपाठेनैव सिद्ध उपदाइपबिन्दुपाठो ज्ञापयति - बाह्वादिगणे 'ग्रहणवता लिङ्गेन तदन्तविधिर्नास्ति' इति (क० च०)।
[रूपसिद्धि]
१. बाहविः । बाहु + इण् + सि | बाहोरपत्यं पुमान् । प्रकृत सूत्र से इण् प्रत्यय, अनुबन्धलोप, "वृद्धिरादौ सणे" (२/६/४९) से आदिस्वर की वृद्धि, "उवर्णस्त्वोत्वमा पायः” (२/६/४६) से हकारोत्तरवर्ती उकार को ओकार, "कार्यावनालादेशौ" (२/ ६/४८) से ओकार को अव्, 'बाहवि' की लिङ्गसंज्ञा, प्रथमा -- एकवचन में सिप्रत्यय तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः' (२/३/६३) से स् को विसगदिश ।
२. उपबाहविः । उपबाहु + इण् + सि । उपबाहोरपत्यम् । अन्य सभी कार्य पूर्ववत् ।
३. बैन्दविः । बिन्दु + इण् + सि | बिन्दोरपत्यं पुमान् । प्रकृत सूत्र से इण् प्रत्यय, अनुबन्धलोप, आदिवृद्धि, उ को ओ, ओ को अव्, लिङ्गसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।
४. औपबिन्दविः । उपबिन्दु + इण् + सि । उपबिन्दोरपत्यं पुमान् । अन्य सभी कार्य क्रमसं० ३ की तरह || ३७२ ।