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नामचतुष्टयाध्याये षष्ठस्तद्धितपादः
३८४. त्रेस्तृ च [२।६।१८] [सूत्रार्थ]
'त्रि' शब्द से पूरण अर्थ में 'तीय' प्रत्यय तथा 'त्रि' के स्थान में 'तृ' आदेश होता है ||३८४।
[दु० वृ०] त्रेः पूरणेऽर्थे तीयो भवति त्रादेशश्च । त्रयाणां पूरणस्तृतीयः ।।३८४ । [दु० टी०]
त्रेस्तृ० । 'तृ च' इत्यविभक्तिनिर्देशनाङ्गीकृतेनादेशोऽयं न प्रत्ययः । यथा “हनस्त च, गमस्त च" (४।२।२२; ४।४९) इति ।।३८४/
[क० च०]
त्रेस्तृ० । ४ चेत्यविभक्तिनिर्देशप्रयलादादेशोऽयं न तु प्रत्यय इति सूचितम् ! यथा "हनस्त च" (४।२।२२) इति टीका ।।३८४ ।
[समीक्षा]
पूरण अर्थ में 'त्रि' शब्द से 'तृतीयः' रूप से साधनार्थ पाणिनि तीय प्रत्यय तथा रेफ को सम्प्रसारण करते हैं - "त्रेः सम्प्रसारणं च" (अ०५।२।५५)।कातन्त्रकार ने साक्षात् 'तृ' आदेश का विधान किया है । सम्प्रसारणविधि में पाणिनि को इकार का “सम्प्रसारणाच्च" सूत्र से पूर्वरूप भी करना पड़ता है । अतः पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव सन्निहित है।
[रूपसिद्धि]
१. तृतीयः । त्रयाणां पूरणः । त्रि+तीय + सि । प्रकृत सूत्र से तीयप्रत्यय तथा त्रि को 'तृ' आदेश एवं विभक्तिकार्य ।। ३८४ ।
३८५. अन्तस्थो डे !ः [२।६।१९] [सूत्रार्थ]
रकारान्त तथा षकारान्त संख्यावाचक शब्दों के अन्त में 'थ' आगम होता है 'ड' प्रत्यय के पर में रहने पर ।।३८५।