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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्षः कारकपादः
२३१ ३. जिह्वमूलीयोपध्मानीययो त्यन्तो ध्वनिकृतो विशेष इति विसर्जनीयेन सहाभेदोपचारः प्रवर्तते। यथा 'अग्निर्माणवकः' इति (दु० टी०)।
४. बहुलं च सर्ववादिसम्मतमेव । अथ त एव विषयाः सुसंगृहीताः, येषां लक्षणं प्रपञ्चश्च । एवमुदाहरणैरेव प्रपञ्चो न्याय्यः, लक्षणेनातिप्रसङ्गात् ! सिद्धस्य हि पुनर्वचने का निष्ठेत्युदाहरणैरेव प्रपञ्चो दर्शितः (दु० टी०)।
५. अन्येऽपि शिष्टप्रयोगानुसारेण वेदितव्या इति (वि० प०)। [रूपसिद्धि]
१. हरणम् । ह + अन + सि । “युट् च" (४।५।९४) से युट् प्रत्यय, अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, “युबुझामनाकान्ताः" (४।६।५४) से यु को 'अन' आदेश तथा अ के व्यवधान में प्रकृत सूत्र से न् को ण् । “धातुविभक्तिवर्जमर्थवल्लिङ्गम्" (२।१।१) से 'हरण' की लिङ्गसंज्ञा, प्रथमाविभक्ति - एकवचन में सि-प्रत्यय तथा “अकारादसंबुद्धौ मुश्च" (२।२।७) से मु आगम-सिलोप ।
२. पुरुषेण । पुरुष + टा । "इन टा" (२।१।२३) से टा को इन, “अवर्ण इवर्णे ए" (१।२।२) से अ को ए-इ का लोप तथा ए के व्यवधान में प्रकृत सूत्र द्वारा न् को ण् आदेश ।
३. मातृकेण। मातृक+ टा । पूर्ववत् टा को इन, अ को ए, इ का लोप, तथा क् + ए के व्यवधान में नकार को णकारादेश ।
४-१०. अhण। अर्ह + टा (ह के व्यवधान में)। अर्येण । अर्य + टा (य् के व्यवधान में)। पर्वणा । पर्वन् + टा (व् के व्यवधान में) । अर्केण । अर्क+टा (क् + ए के व्यवधान में)। मूर्खेण । मूर्ख + टा (ख् + ए के व्यवधान में)। दर्पण। दर्प + टा (प् + ए के व्यवधान में)। रेफेण । रेफ +टा (फ् + ए के व्यवधान में)।
११-१२. शीर्णम् । शृ+ न + सि । तिसृणाम् ।त्रि (स्त्रीलिङ्ग) + आम् । शृधातुगत ऋ को इर्-ईर् होने पर रेफ और न में कोई व्यवधान नहीं है। इसी प्रकार त्रि को तिसृ आदेश तथा नु-आगम होने पर ऋ और न में भी कोई व्यवधान नहीं है । इन दोनों ही शब्दों में व्यवधान के अभाव में ही प्रकृत सूत्र द्वारा न को ण आदेश।