________________
३६४
कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा
किसी भी समास में सामान्यतया दो शब्दों के रहने से जो प्रधानाप्रधान का विचार किया जाता है, तदनुसार अव्ययीभाव को पूर्वपदार्थप्रधान, तत्पुरुष को उत्तरपदार्थप्रधान, द्वन्द्व को उभयपदार्थप्रधान तथा बहुव्रीहि को अन्यपदार्थप्रधान माना जाता है, परन्तु कुछ अपवादरूप शब्दों में इन लक्षणों के संगत न होने से 'अव्ययीभावाधिकारपठितत्वमव्ययीभावत्वम्, तत्पुरुषाधिकारपठितत्वं तत्पुरुषत्वम्, द्वन्द्वाधिकारपठितत्वं द्वन्द्वत्वम्, बहुव्रीह्यधिकारपठितत्वं बहुव्रीहित्वम्' इस प्रकार का लक्षण स्थिर किया जाता है | पाणिनीय व्याकरण में इनकी संगति इसलिए बन जाती है, क्योंकि वहाँ इस प्रकार अधिकारसूत्र उपलब्ध होते हैं | कातन्त्रव्याकरण में प्रत्येक समास के लिए अधिकारसूत्र की व्यवस्था नहीं की गई है । अतः वहाँ तो 'पूर्व वाच्यं भवेद् यस्य सोऽव्ययीभाव इष्यते' इसी प्रकार के लक्षण की संगति हो सकती है । अपवादों के विषय में व्याख्याकारों के वचन द्रष्टव्य हैं । विभक्ति- समीप आदि अर्थ वृत्तिकार दुर्गसिंह ने प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें पाणिनीय व्याकरण में सूत्र में कहा गया है ।
[रूपसिद्धि]
१. अधिस्त्रि | स्त्रीष्वधिकृत्य कथा प्रवृत्ता । स्त्री + सुप् (विभक्ति) । प्रकृत सूत्र से अव्ययीभाव समास, लिङ्गसंज्ञा, कारकार्थक ‘अधि' का पूर्वनिपात, | "स नपुंसकलिङ्गं स्यात्" (२।५।१५) से नपुंसकलिङ्ग, “स्वरो हस्वो नपुंसके" (२।४।५२) से ईकार को ह्रस्व, अव्ययीभाव की अन्वर्थता से अव्ययसंज्ञा तथा “अव्ययाच्च" (२।४।४) से सिलोप ।
२. उपकुम्भम् । कुम्भस्य समीपम् । कुम्भ + ङस् + उप | अव्ययीभावसमास, लिङ्गसंज्ञा, विभक्तिलोप, उप का पूर्वनिपात, सि - प्रत्यय, “अव्ययीभावादकारान्ताद् विभक्तीनाममपञ्चम्याः" (२।४।१) से सि को अमादेश।
३. सुमद्रम् । मद्राणां समृद्धिः । मद्र + आम् + सु । पूर्ववत् समास, लिङ्गसंज्ञा, विभक्तिलोप, सु का पूर्वनिपात, सिप्रत्यय, २।४।१ से सि को अम् आदेश |
४.निर्मक्षिकम् ।मक्षिकाणाम् अभावः । मक्षिका + आम् + निर् । पूर्ववत् समासादि, हस्व, सि को अम् आदेश।
५.दुर्गवधिकम् । गवधिकानां व्यद्धिः । गवधिक + आम् + दुर् |पूर्ववत् समासादि ।