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कातन्त्रव्याकरणम् अस्य मुख्योदाहरणं पुनरिह 'भूतले घटाभावः' इति। अत्राधाराधेययोर्भूतलघटाभावयोर्न संयोगो नापि समवायः, अभावस्य द्रव्यत्वगुणत्वाभावादिति । तथेति । तन्मते सामीप्यार्थस्य सप्तमीविभक्तिवाच्यत्वात् 'लक्षणा न क्रियते इति 'आधारस्त्रिविधो शेयः' इति सर्वतान्त्रिकत्वाद् वररुचिमतमपास्तम् । यथाह-अथवेति ।।२९६।
[समीक्षा]
आधार की अधिकरणसंज्ञा पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही शाब्दिकाचार्यों ने की है | पाणिनि का सूत्र है - "आधारोऽधिकरणम्" (अ०१।४।४५)। व्याख्याकारों ने आधार उसे कहा है, जिसमें क्रिया रहती हो । क्रिया साक्षात् संबन्ध से कहीं कर्ता में और कहीं कर्म में रहती है। अतः कर्त-कर्मसंज्ञा की बाधिका यह अधिकरणसंज्ञा सिद्ध न हो, इसलिए व्याख्याकारों का अभिमत है कि कर्ता और कर्म साक्षात् संबन्ध से जिसके आश्रय होंगे, वही आधार माना जाएगा और इसी आधार की अधिकरणसंज्ञा प्रवृत्त होगी । इस प्रकार परम्परा से क्रिया के आधार को अधिकरण कहेंगे - 'परम्परया क्रियाधारभूतत्वम् अधिकरणत्वम्'।
सामान्यतया आधार तीन माने जाते हैं - औपश्लेषिक, वैषयिक तथा अभिव्यापक । परन्तु इनके अतिरिक्त सामीपिक, औपचारिक एवं नैमित्तिक आधारों को भी व्याख्याकारों ने स्वीकार किया है । एक श्लोक में इन सभी के उदाहरण मिल जाते हैं
कटे शेते कुमारोऽसौ वटे गावः सुशेरते। तिलेषु वियते तैलं हृदि ब्रह्मामृतं परम् ॥ युद्धे संनह्मते धीरोऽगुल्यग्रे करिणां शतम् ॥
__ (द्र०,सि० च०-पृ० २४८, “आधारे सप्तमी")।
१. तथा चास्मिन् पक्षे औपश्लेषिकः प्रकृष्टः न पुनर्वररुचिमतसिद्धम् औपचारिकम् अतिरिक्ताधारं निरस्यति । अमुल्यम्र इति । स्वमते त्वौपश्लेषिक एवौपचारिकः प्रकृष्टो नातिरिक्त इत्यर्थः । उपचरितस्य करिशतस्येति करिशतमूल्यस्येत्यर्थः । स्वमते आधारवाचक एवोपचारः । वररुचिस्तु आधारे अमुल्यग्रबोधितस्थाने करिशतमिति उपचाराश्रित्या औपचारिकाधारमाहेति विशेषः । स्वमतेऽप्यौपचारिकोपश्लेषघटने बाधकाभाव इति ।