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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः 'ङसि' प्रत्यय के स्थान में "ङसिरात्" (२।१।२१) से 'आत्' आदेश, “समानः सवर्णे दीर्घाभवति परश्च लोपम्" (१।२।१) से समानलक्षण दीर्घ एवं परवर्ती आकार का लोप ।
___५-७ = देवदत्तस्य स्वामी । देवदत्त + ङस् । यज्ञदत्तस्य स्वम् । यज्ञदत्त + ङस् । विष्णुमित्रस्य संबन्धः। विष्णुमित्र + ङस् । देवदत्त-स्वामी आदि में स्व-स्वामिभावादि संबन्ध होने के कारण अप्रधान देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुमित्र में प्रकृत सूत्र से षष्ठी विभक्ति । एकवचन ङस् के स्थान में "ङस् स्य" (२।१।२२) से स्य आदेश |
८-९. कटे आस्ते । कट + ङि । अधीती व्याकरणे। व्याकरण + ङि । “य आधारस्तदधिकरणम्" (२।१।११) से कट-व्याकरण की अधिकरणसंज्ञा तथा प्रकृत सूत्र से उससे सप्तमी विभक्ति । एकवचन ङि- इ के परवर्ती होने पर “अवर्ण इवणे ए" (१।२।२) से अ को ए एवं परवर्ती इ का लोप ।
[विशेष
(१) इस विषय में “साधुनिपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्यप्रतेः, प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च" (अ०२।३।४३, ४४) इत्यादि सूत्रों को कातन्त्रव्याख्याकारों ने अनावश्यक बताया है। ___ (२) वृत्तिकार दुर्गसिंह ने “निमित्तात् कर्मसंयोगे सप्तमी वाच्या" इस वार्त्तिकवचन को स्वीकार किया है, जिससे 'चर्मणि, दन्तयोः, केशेषु, सीम्नि' में सप्तमी विभक्ति का विधान उपपन्न होता है -
चर्मणि दीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञरम् । केशेषु चमरी हन्ति सीम्नि पुष्यलको हतः॥३०४।
३०५. पर्यपायोगे पञ्चमी [२।४।२०] [सूत्रार्थ]
परि, अप तथा आङ् उपसर्ग के योग में लिङ्ग (प्रातिपदिक) से पञ्चमी विभक्ति होती है ||३०५।