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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः
११३ दो कारक प्राप्त होते हैं, वहाँ प्रथम क्रम के अनुसार परवर्ती कारक प्रवृत्त होता है तथा द्वितीय क्रम के अनुसार पूर्ववर्ती कारक । कहा भी गया है
१. अपादान-सम्प्रदान-करणाधारकर्मणाम्। ___ कर्तुश्चान्योऽन्यसंदेहे परमेकं प्रवर्तते ॥
(वा०प०, द्र०-श०श० प्र०, का० ८२)। २. कर्तृ-कर्माधिकरणं करणं सम्प्रदानकम्। अपादानं च संदेहे परं पूर्वेण बाध्यते ॥
(मुग्ध० - दुर्गादासीय टीका, सू० ३१६)। पाणिनि और शर्ववर्मा ने प्रथम क्रम अपनाया है, परन्तु शर्ववर्मा ने कातन्त्रव्याकरण में करण को अधिकरण से पर में पढ़ा है, जिसके फलस्वरूप 'धनुषा शरान् क्षिपति' में 'धनुष्' की करणसंज्ञा ही उपपन्न होती है तथा उससे अधिकरणसंज्ञा का बाध हो जाता है | पाणिनि के अनुसार यहाँ अधिकरण संज्ञा की प्राप्ति होगी – “आकडारादेका संज्ञा, विप्रतिषेधे परं कार्यम्" (अ० १।४।१, २)।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि अर्थलाघव अभीष्ट होने के कारण तथा प्रसिद्ध होने के कारण भी कातन्त्र में कारकसंज्ञा व्याख्यात नहीं है, परन्तु पूर्वाचार्यव्यवहारसमादर के कारण उसका प्रयोग श्रीपतिदत्त आदि आचार्यों द्वारा मान्य है।
[विशेष वचन] १. लोके शास्त्रे च न संज्ञया संज्ञान्तरस्य बाधा क्रियते (दु० टी०)। २. विवक्षातः कारकाणि भवन्ति (दु० टी०)। ३. सम्प्रदानादयः संज्ञा रुचिधारिविवर्जिताः ।
लोकोपचारतः सिद्धाः सुखबोधाय दर्शिताः ।। (दु० टी०)। ४. संज्ञया संज्ञान्तराणामबाधितत्वाद् अपादानादयः संज्ञाः क्रमेण प्रादुर्भवन्ति
(वि० प०)। ५. प्रधामशक्त्यभिधाने गुणशक्तिरभिहितवत् प्रकाशते (क० च०)। ६. वस्तुतस्तु अपाणिनीयत्वात् स्वकपोलकल्पितं श्रीपतिसूत्रं न साधु(क० च०)।