Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रम उत्तर प्रकृतिप्रदेशसंक्रमका विचार करते हुए सर्वप्रथम उसके अर्थपदका उल्लेख करके बतलाया है कि जिस प्रकृतिके कर्मपरमाणु अन्य प्रकृतिमें ले जाये जाते हैं उस प्रकृतिका वह प्रदेशसंक्रम कहलाता है। जैसे मिथ्यात्वके कर्मपरमाणु सम्यक्त्वमें संक्रान्त किये जाते हैं, इसलिए वह मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम कहलाता है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंका भी प्रदेशसंक्रम जानना चाहिए । प्रदेशसंक्रमके विषयमें यह अर्थपद है। इसके अनुसार प्रदेशसंक्रमके पाँच मेद हैं। उनके नाम ये है-उद्वेलनासंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ।
उद्वलनासंक्रम-करण परिणामोंके बिना रस्सीके उकेलनेके समान कर्मपरमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप परिणम जाना उद्वेलनासंक्रम है। मोहनीय कर्ममें यह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो कर्मप्रकृतियोंका ही होता है। इसका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यह कहाँ होता है इसका विशेष खुलासा करते हुए बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव जब सम्यक्त्व परिणामको छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें जाता है तो मिथ्यात्वमें जानेके समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक वह सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वका अधःप्रवृचिसक्रम करता है। उसके बाद इन दोनों कर्मोंका उद्वेलनासंक्रम प्रारम्भ करता है। इसका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतने काल तक इन कर्मोंका उबेलनाभागहारकेद्वारा प्रतिसमय विशेषहीन विशेषहीनक्रमसे प्रदेशसंक्रम करता है। उत्तरोत्तर इन कर्मोका द्रव्य घटता जाता है इसलिए प्रत्येक समयमें अपने पूर्व समयकी अपेक्षा विशेष हीन द्रव्यका ही संक्रम होता है ऐसा यहाँ अभिप्राय जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इन दोनों को अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके समय उपान्त्य फालिके पतन होने तक गुणसंक्रम और अन्तिम फालिके पतनके समय सर्वसंक्रम होता है।
विध्यातसंक्रम-वेदकसम्यक्त्वके कालमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक सर्वत्र मिथ्यात्व, और सम्यग्मिथ्यात्वका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके भी गुणसंक्रमके काल के बाद सर्वत्र उक्त प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है। इसका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। फिर भी यह उद्वेलनासंक्रमके भागहारसे असंख्यातगुणा हीन है। इसीप्रकार अन्य जिन प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है उसका विचार समझ कर कर लेना चाहिए।
अधःप्रवृत्तसंक्रम-बन्ध प्रकृतियोंका अपने बन्धके समय जो संक्रम होता है वह अधःप्रवृत्तसंक्रम है । श्वेताम्बर कर्मग्रन्थों में 'अधाप्रवृत्त' शब्दका संस्कृतमें रूपान्तर 'यथाप्रवृत्त' किया है। इसीप्रकार 'पडिग्गह' शब्दका रूपान्तर 'पतद्ग्रह' किया है। अधःप्रवृत्तसंक्रमका भागहार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उदाहरणार्थ चारित्रमोहनीयकी २५ प्रकृतियोंका अपने बन्धकालमें बध्यमान प्रकृतियोंमें अधाप्रवृत्तसंक्रम होता है।
गुणसंक्रम-प्रत्येक समयमें असंख्यात श्रेणीरूपसे होनेवाले संक्रमका नाम गुणसंक्रम है। यह दर्शनमोहनीयकी क्षपणा, चारित्रमोहनीयकी क्षपणा, उपशमश्रेणि, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे होता है । तथा सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अन्तिम काण्डकके पतनके समय होता है। मात्र अन्तिम कारटककी अन्तिम फालिके पतनके समय गुणसंक्रम नहीं होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।