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जिनवाणी- विशेषाङ्क
यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है तो चक्रवर्ती भी रंक के समान है और यदि बोधिरत्न प्राप्त हो गया है तो रंक भी चक्रवर्ती से बढ़कर है । सम्यग्दृष्टि के लिए बाह्य धन-सम्पदा का प्रलोभन नहीं होता । वह उसे सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के समक्ष तुच्छ ही समझता है । इसीलिए निम्न कथन प्रचलित हो गया है
चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्र सरीखे भोग ।
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काकबीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग ॥
इसका अर्थ यह नहीं है कि सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सांसारिक कार्यों का निर्वाह नहीं करता। वह निर्वाह करता है, किन्तु निर्लिप्त एवं निरासक्त भाव से । उसकी सांसारिक विषय-भोगों के प्रति रुचि नहीं रहती, घर-परिवार एवं धन-सम्पदा पर ममत्व एवं आसक्ति न्यून हो जाती है । इसीलिए कहा गया
अहो समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर्गत न्यारो रहे ज्यों धाय खिलावे बाल ॥
सम्यग्दृष्टि का चरण जब आगे बढ़ता है तो वह देशविरति एवं सर्वविरति को प्राप्त करता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि तो अप्रमत्त भाव को प्राप्त कर उसी भव में (आयुष्य न बांधने पर) भी मोक्ष के अनन्तसुख को प्राप्त कर लेता है । वह अनन्तज्ञानी एवं अनन्तदर्शनी होने के साथ दानादि लब्धियों को प्राप्त कर लेता है ।
अनन्तानुबन्धी कषाय एवं दर्शनमोहनीय का उदय में अभाव होने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है तथा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर अन्य कषायों का भी क्षय करना सम्भव है ।
शास्त्र कहते हैं कि जहां सम्यक्त्व नहीं वहां ज्ञान भी अज्ञानरूप ही है । सम्यग्दर्शन के बिना आत्मलक्ष्यी अथवा मोक्षाभिमुखी ज्ञान का अभाव ही रहता है । यद्यपि अज्ञानी एवं ज्ञानी दोनों ही बाह्य वस्तुओं को एक जैसे नामों से जानते एवं पुकारते हैं, तथापि उनकी दृष्टि में भारी अन्तर होता है । दोनों ही गाय को गाय, हाथी को हाथी और कुत्ते को कुत्ता ही कहते हैं, किन्तु अज्ञानी जहां बाह्य दृष्टि तक सीमित है वहां ज्ञानी उसका वास्तविक स्वरूप जानता है । उसकी नित्यानित्यता को जानता है ।
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मिथ्यात्वी कहता है यह तन अनमोल है। नर भव की यह देह पहले कभी मिली नहीं, इसलिए इसको खूब सजाओ, संवारो। इसे किसी प्रकार का कष्ट मत दो। इसे खूब नहलाओ, धुलवाओ और खूब खिलाओ - पिलाओ, इस प्रकार उसका चिन्तन चलता रहता है । सम्यग्दृष्टि भी नरतन को अनमोल मानता है और उसकी असाधारण सत्ता को स्वीकार करता है । वह सोचता है - यही तो वह अनुपम, अनमोल मनुष्य देह है जिसे प्राप्त कर अनन्त जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं।' जब किसी को सम्यक्त्व प्राप्त होता है तो उसका जीवन, उसके विचार उसका कार्यकलाप सभी में परिवर्तन स्पष्ट लक्षित होता है । जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, यह नियम सम्यग्दृष्टि व्यक्ति पर भी घटित होता है । उसका संसार बदल जाता है। उसके भीतर जो बदलाव आता है वह उसे काम, क्रोध, मद, लोभ आदि से बचाता है ।
दृष्टिभेद से संसार की वस्तुएं सबको भिन्न-भिन्न रूप में दिखाई पड़ती हैं । मिथ्यात्वी जहां संसार की वस्तुओं को भोग्य वस्तुओं के रूप में देखता है, सम्यक्त्वी वहां उन वस्तुओं से अपने को पृथक् समझता है एवं उसका भोग करने की भावना से
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