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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन तीनों के सम्यक् होने पर ही सांसारिक बन्धन से सदैव के लिए छुटकारा प्राप्त होता है । (तत्त्वार्थसूत्र, १.१)
प्रश्न यह उठता है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में ज्ञान एवं क्रिया का कोई योगदान होता है या नहीं? प्रश्न गंभीर है। ज्ञान एवं क्रिया अभी सम्यक् नहीं है, फिर भी वे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में सहयोगी बनते हैं। यदि ऐसा नहीं हो तो कभी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। निश्चय एवं व्यवहार सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन करने वाले यह निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि जब तक जीव के मोहनीय कर्म की स्थिति अन्तःकोटाकोटि सागरोपम नहीं होती है तब तक उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। मोहनीय सहित सात कर्मों (आयु को छोड़कर) की उत्कृष्ट बंध स्थिति सत्तर कोटाकोटि ! सागरोपम की होती है। उसका एक कोटाकोटि सागरोपम से भी कम रह जाना बिना क्रिया या पुरुषार्थ के संभव नहीं है। इसमें प्राप्त ज्ञान एवं क्रिया का मुख्य योगदान होता है। यदि विचारों में शुभ्रता नहीं होगी एवं आचरण में शुभता नहीं होगी तो मोहकर्म की स्थिति अन्तःकोटाकोटि मात्र नहीं रह सकती। मोहनीय कर्म की स्थिति घटने के साथ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की भी स्थिति घट जाती है । तप, संयम आदि से होने वाली निर्जरा भी कर्म-क्षय में साधन बनती है। निश्चयवादियों का मत है
इम समकित पायां बिना जप तप करणी थोक।
मुरदे को सिणगारणां मात्र दिखावा लोक ॥ यह कथन एकान्त निश्चय नय का कथन है। वस्तुतः व्यवहार को भी उतना ही महत्त्व देना होगा जितना कि निश्चय को। एकान्त निश्चय का कथन भ्रामक हो सकता है। मुर्दे का शृंगार व्यवहार में भी फलदायी नहीं होता है, किन्तु तप, संयम आदि की क्रियाए मात्र लोक दिखावा हो, ऐसा नहीं है। शास्त्रादि के श्रुतज्ञान का आश्रय लेकर चिन्तन-मनन करना एवं कर्म-निर्जरा के लक्ष्य से तप-संयमादि करना लोकदिखावा नहीं कहा जा सकता। यह तो मार्ग है जिससे सम्यग्दर्शन की उपलब्धि सम्भव है। यदि मार्ग का ही निषेध कर दिया जाएगा तो सम्यग्दर्शन तक कथमपि पहुंचना सम्भव नहीं है। इसलिए व्यवहार का पूर्णतः निषेध करके सम्यग्दर्शन की बात कहना समीचीन नहीं है।
मक्खन की प्राप्ति के लिए बिलौने की रस्सी के दोनों सिरों को क्रम से खींचना होगा, अन्यथा मक्खन नहीं निकल सकेगा। निश्चय एवं व्यवहार दोनों दृष्टियों का महत्त्व है। कभी निश्चय की प्रधानता होती है और व्यवहार गौण होता है तो कभी व्यवहार प्रधान एवं निश्चय गौण होता है। पक्षी के जिस प्रकार दोनों पंखों का महत्त्व है, उसी प्रकार जीवन में निश्चय एवं व्यवहार के समुचित समन्वय की आवश्यकता है। एकान्त रूप से व्यवहार पर बल देना एवं एकान्त रूप से व्यवहार को गौण करना उचित नहीं है।
सम्यक्त्व : दृष्टि परिवर्तन सम्यग्दर्शन रूप बोधिरत्न प्राप्त हो जाए तो एक रंक भी चक्रवर्ती से बढ़कर होता
अप्राप्ते बोधिरत्ने हि चक्रवर्त्यपि रंकवत्। संप्राप्ते बोधिरले तु रंकोऽपि स्यात्ततोऽधिकः ।।
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