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जिनवाणी-विशेषाङ्क
पर यथातथ श्रद्धा करना (उत्तराध्ययनसूत्र २८.१४-१५ एवं तत्त्वार्थसूत्र १.२) और २. अरिहंत एवं सिद्ध रूप वीतराग देव, पंच महाव्रतधारी गुरु एवं जिनप्रज्ञप्त धर्म पर आस्था या विश्वास रखना. यथा
अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो।
जिणपण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ।। दोनों प्रकार के समाधान में बाह्य भेद प्रतीत होता है, किन्तु वह स्वरूपतः एक ही है। नवतत्त्वों या तत्त्वार्थों पर श्रद्धा होगी तो देव एवं गुरु पर भी श्रद्धा हो जाएगी और देव एवं गुरु पर श्रद्धा है तो जिनप्रज्ञप्त धर्म पर भी श्रद्धा हो जाएगी।
जीवन का बाह्य व्यवहार भी पारस्परिक विश्वास पर टिका हुआ है। लाखों-करोड़ों का लेन-देन भी इसी पर निर्भर करता है। विश्वास नहीं है तो चरण आगे नहीं बढ़ते । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मार्ग में आए चौराहे पर निर्णय नहीं कर पाता कि उसे किस ओर जाने पर गंतव्य मिल सकेगा। वह बालक से मार्ग पूछता है। बालक मार्ग बताता है, किन्तु विश्वास नहीं हुआ, तो चरण आगे नहीं बढ़े। किसी अन्य व्यक्ति से पूछा। उसने भी वही मार्ग बताया, किन्तु उस पर भी विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि उस व्यक्ति से वह पहले धोखा खा चुका है। तीसरा व्यक्ति आया, उससे पूछा गया, किन्तु वह पागल है, अतः उसके वचन पर भी विश्वास नहीं हुआ। अन्त में मार्ग को जानने वाले पुलिस मेन से पूछा गया। उसने जो मार्ग बताया, उस पर विश्वास हो गया और व्यक्ति चल पड़ा।
आध्यात्मिक क्षेत्र में भी विश्वास अनिवार्य है। विश्वास के बिना यहां भी चरण नहीं बढ़ते । विश्वास भी उसी पर करने योग्य है जिससे निश्चिन्तता एवं निःशंकता आ सके। सबसे बड़ा विश्वास तो स्वयं अपनी आत्मा पर होना चाहिए। तभी समस्त तत्त्वों पर विश्वास हो सकेगा। आत्मा पर श्रद्धान करने पर सम्यग्दर्शनी का चिन्तन चलता है-'मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मुझे यहां क्या करना है? मैं दुर्लभ जीवन को किस प्रकार जी रहा हूं।' मिथ्यात्वी 'पर' का चिन्तन करता है जबकि सम्यक्त्वी 'निज' का चिन्तन करता है। क्या है मेरा लक्ष्य? क्या है मेरा उद्देश्य, क्या है मेरा साध्य? ऐसे प्रश्नों का उद्गम सम्यग्दर्शन का द्योतक है। साध्य के प्रति यदि श्रद्धा नहीं है तो सिद्धि सम्भव नहीं। सिद्धि के लिए श्रद्धा नितान्त अनिवार्य है।
जब बिना विश्वास या श्रद्धा के बाह्य व्यवहार भी सफलतापूर्वक नहीं चल पाता है तो फिर आध्यात्मिक क्षेत्र में सफलता के लिए अपने आप पर विश्वास होना अनिवार्य है। अपने आप पर विश्वास से तात्पर्य आत्मा पर विश्वास से है । सम्यग्दर्शन का एक अर्थ भेदविज्ञान भी लिया जाने लगा है, किन्तु यह भी श्रद्धा के बिना संभव नहीं। आत्म-तत्त्व पर श्रद्धा होने पर ही अनात्म से अपने को भिन्न समझा जा सकता है ।
(२)
एकान्त निश्चय : भ्रामक रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन का प्रथम स्थान है, क्योंकि दर्शन के सम्यक् हुए बिना ज्ञान एवं चारित्र सम्यक् नहीं होते (उत्तराध्ययनसूत्र, २८.३०)। दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन
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