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तीर्थों का विभाजन
के संगम भी पवित्र माने गये हैं। चूकि भारतीय संस्कृति में आर्य, द्रविण, निषाद, किरात आदि संस्कृतियों का सम्मिश्रण है और इस सम्मिश्रण का सबसे ज्यादा प्रभाव धार्मिक क्षेत्र में देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में तो आदान-प्रदान की बहुलता के कारण किसी एक देवता का मूल रूप क्या था ? अथवा वह किस संस्कृति से प्राचीन काल में सम्बन्धित रहा, यह सदा निश्चय से कह पाना कठिन है । इस विषय में जो शोध कार्य हए हैं, उनसे रोचक निष्कर्ष सामने आये हैं। भारतीय लोक में प्रचलित वीरब्रह्म, जिसकी पूजा आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में किसी न किसी रूप में प्रचलित है, प्राचीन काल में प्रचलित यक्ष पूजा की ही प्रतिनिधि है। प्राचीन भारतीय साहित्य, कला और धर्म इन तीनों क्षेत्रों में यक्षविषयक मान्यता का प्रभाव रहा। यक्ष पूजा का प्रभाव ब्राह्मणीय, बौद्ध और जैन तीनों धर्मों पर पड़ा। लोक धर्म अत्यन्त प्राचीन माना जाता है। लोक में प्रतिवर्ष समयसमय पर देवी-देवताओं के मेले लगते थे और ये किसी न किसी रूप में आज भी प्रचलित हैं। प्रत्येक जनपद या प्रदेश में मुख्य-मुख्य मेलों की छान-बीन करने से ज्ञात होता है कि इनके पीछे देवी-देवता की पूजा ही मुख्य कारण है। प्राचीन काल में ये मेले अथवा उत्सव 'मह' कहे जाते थे। उच्चवर्गीय लोगों के जीवन में जो स्थान वैदिक यज्ञों का था, वही स्थान लोकजीवन में 'मह' नामक उत्सवों का था।" तीर्थों की कल्पना के विकास में लोक धर्म के इन परम्पराओं ने भी अवश्य ही योगदान किया होगा।
वैदिक धर्म और लोक धर्म में मेल-जोल की प्रक्रिया वैदिक युग से ही आरम्भ हो चुकी थी।६ वैदिक साहित्य में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। उदाहरण के लिये अथर्ववेद के एक सूक्त में बड़ी
१. काणे, पी० वी०-पूर्वोक्त, तृतीय भाग, पृ० १३०४ । २. अग्रवाल, वासुदेवशरण–प्राचीनभारतीयलोकधर्म, पृ० २। ३. वही, पृ० ३। ४. वही ५. वही, पृ० ४। '६. वही, पृ० ३।
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