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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
उसे गाड़ी में रखकर चला । कुछ दूर चलने के पश्चात् उसने पीछे मुड़
कर देखा तो प्रतिमा वहीं स्तंभित हो गयी, राजा ने वहीं जिनालय बनवाया और उसे स्थापित करा दिया । वह प्रतिमा वहीं अधर में स्थिर रही। पहले प्रतिमा और भूमि के बीच इतना अन्तर रहा कि एक स्त्री जल के घड़े को सिर पर रखे हुए उसके नीचे से निकल ती थी, परन्तु अब केवल वस्त्र ही निकल पाता है । यहाँ यात्रीगण महोत्सव करते हैं । जिन प्रतिमा के न्हवण कराये गये जल से सिंचित आरती नहीं बुझती और उससे शरीर के विभिन्न चर्मरोगादि नष्ट होते हैं ।"
सोमप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशसप्तशती' ( रचनाकाल वि०सं० १५०३) में भी कल्पप्रदीप के समान ही विवरण प्राप्त होता है । तपागच्छीय आचार्य लावण्यसमय द्वारा वि०सं० १५८५ में रचित अन्तरिक्षपार्श्वनाथछंद में भी इसी प्रकार का विवरण है, परन्तु कथा में रावण के स्थान पर कुम्भकर्ण का नाम दिया है । भावविजयगणि ने वि० सं० १७१५ में रचित अन्तरिक्षमाहात्म्य नामक रचना में भी इसी प्रकार का विवरण दिया है और कहा है उक्त मंदिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा वि。सं ११४२ माघ शुक्ल पंचमी रविवार को मलधारगच्छीय आचार्य अभयदेवसूरि द्वारा सम्पन्न हुई । किन्तु शीलविजय ने अपनी तीर्थमाला' ( रचनाकाल वि०सं० १७४६ ) में इसे एक दिगम्बर तीर्थ के रूप में उल्लिखित किया है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में इस तीर्थ के बारे में श्वेताम्बरों से प्राचीन और विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । इस सम्बन्ध में सबसे पहले जिस रचना का उल्लेख किया जा सकता है वह है मदनकीर्ति द्वारा रचित
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१. उपदेशसप्तशति २।१०।२१ - २४ ।
२. देसाई, मोहनलाल दलीचंद - जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ५२५ ।
३. वही,
पृ० २२९ ।
४. सूरिविजयधर्म- संपा० प्राचीनतीर्थमालासंग्रह, पृ० १०१-१३१
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