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दक्षिण भारत के जैन तीर्थं त्तमराज, पिण्डिकुण्डिमराज, प्रोल्लराज, रुद्रदेव, गणपतिदेव हुए। गणपतिदेव के पश्चात् उसकी पुत्री रुद्राम्बा ने ३५ वर्ष तक शासन किया और इसके बाद प्रतापरुद्रदेव ने राज्य किया । ये काकती ग्राम के मूल निवासी थे, इसीलिए यह वंश काकतीयवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ । "
आमरकोण्ड को वर्तमान आन्ध्रप्रदेश के वारङ्गल जिलान्तर्गत स्थित अनमकोण्ड से समीकृत किया जाता है । यहाँ कदलालय देवी का मंदिर है, जो इस समय ब्राह्मणों के अधिकार में है । इस मंदिर से ई० सन् १११७ का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। जिसमें प्रोल 'द्वितीय' ( ई० सन् ११५० ) के मंत्री पंगडे की पत्नी मेलाम्बा द्वारा इस मंदिर का निर्माण कराने और कुछ भूमि दान में देने एवं उग्रवाडि के " मेळरस" द्वारा भी भूमिदान देने का उल्लेख है । इसी लेख में मेळरस को माधववर्मा का, जिसके पास कई लाख हाथी-घोड़े थे, पूर्वज बतलाया गया है । उक्त अभिलेख से जिनप्रभ द्वारा उल्लिखित माधवराज की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है, परन्तु काकतीयों की मुख्य शाखा की जो वंशावली हमें प्राप्त होती है उसमें इस राजा का नाम नहीं मिलता और दूसरे किसी भी अन्य साक्ष्य से काकतीयों को किसी जैन आचार्य के प्रभाव से सत्ता में आने की कोई सूचना नहीं मिलती । अतः ऐसी परिस्थिति में यही मानना चाहिए कि माधवराज काकतीयों की मुख्य शाखा का न होकर किसी उपशाखा से सम्बन्धित था और जैन आचार्यों के प्रभाव से ही उसे राजसत्ता प्राप्त हुई । जिनप्रभ द्वारा उल्लिखित पुरंटिरित्तमराज और पिण्डिकुण्डिमराज भी काकतीयों की उपशाखा से ही संबद्ध रहे। इसी उपशाखा के मैळरस को हम प्रोल े के महामण्ड - लेश्वर के रूप में देखते हैं जो अपने पूर्वजों को बड़े आदर के साथ उल्लिखित करता है । इस आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि काकतीयों की यह उपशाखा एक दिगम्बर जैन आचार्य के सहयोग से ही राजसत्ता प्राप्त कर सकी थी। जिनप्रभ द्वारा उल्लिखित प्रोल से प्रतापरुद्र तक के राजा काकतीयों की मुख्य शाखा के ही हैं । इसी प्रकार उन्होंने रुद्राम्बा के ३५ वर्षीय शासन का जो उल्लेख किया है, वह भी इतिहाससिद्ध है । २
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१. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द ९, पृ० २५६ ।
२. मजुमदार और पुसालकर - द स्ट्रगिल फार एम्पायर, पृ० ८६३.
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