Book Title: Jain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 337
________________ २८४ दक्षिण भारत के जैन तीर्थ पूजा की। लंकादहन के समय वह प्रतिमा समुद्र में डाल दी गई। बहुत काल बीतने पर कन्नड़ देशान्तर्गत कल्याण नगरी के राजा शंकर ने पद्मावती के सहयोग से उक्त प्रतिमा प्राप्त की और उसे तैलंग देश के कुल्पाक नामक नगरी में एक नवनिर्मित जिनालय में स्थापित कर दी और उसके व्यय हेतु १२ ग्राम प्रदान किया। वि० सं०६८० पर्यन्त यह प्रतिमा अधर में रही, तत्पश्चात् यवन राज्य स्थापित हो जाने पर यह प्रतिमा सिंहासनारूढ़ हुई । प्रतिमा अत्यन्त चमत्कारी है, उसके नण्हव कराये गये जल से सिंचित आरती नहीं बुझती और चर्मरोगादि नष्ट हो जाते हैं।" जिनप्रभसूरि के उपरोक्त विवरण में ऐतिहासिक तथ्य इतना ही है कि कल्याणी के राजा शंकर द्वारा तैलंगदेश के कुल्पाक नगरी में माणिक्यस्वामी की प्रतिमा स्थापित की गई। कल्याणी का राजा शंकर कौन था? कुछ विद्वानों के अनुसार यह राजा कल्याणी का कल्चुरीवंशीय संकम 'द्वितीय' था, जिसने ई० सन् ११७७ से ई० सन् ११८० तक राज्य किया । परन्तु पर्याप्त कारणों के अभाव में यह मत पूर्णतया स्वीकार नहीं किया जा सकता । उदयकीति-१२वीं१३वीं शती, गुणकीर्ति-१५वीं शती, सुमतिसागर-१६वीं शती, जयसागर-१७वीं शती एवं ज्ञानसागर-१६-१७ वीं शती आदि दिगम्बर तथा शीलविजय-१७ वीं शती जैसे श्वेताम्बर जैन ग्रन्थकारों ने इस तीर्थ को एक दिगम्बर केन्द्र के रूप में उल्लिखित किया है । यद्यपि जिनप्रभ इसका उल्लेख मात्र एक जैन तीर्थ के रूप में करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि इस तीर्थ का सबसे प्राचीन उल्लेख १२-१३वीं शती का है। संभवतः इसी समय यह तीर्थ अस्तित्व में आया होगा। जिनप्रभ ने प्रतिमा के चमत्कारों एवं वि० सं० ६८० के पश्चात् यहाँ राज्य स्थापित होने का जो उल्लेख किया है उसे उनकी व्यक्तिगत श्रद्धा एवं कल्पना पर ही आधारित माना जा सकता है। १. जोहरापुरकर, विद्याधर-तीर्थवन्दनसंग्रह, पृ० १३२ । २. मजुमदार और पुसालकर-द स्ट्रगिल फार एम्पायर, पृ० १८१-१८२ ३. जोहरापुरकर-वही, पृ० १३२ । ४. शीलविजयकृत-"तीर्थमाला" प्राचीनतीर्थमालासंग्रह ( संपा० विजय धर्म-सूरि ) के अन्तर्गत प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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