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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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करते हैं । इसीप्रकार सोमप्रभ ने भी इसे जैन तीर्थ के रूप में ही उल्लि खित किया है, श्वेताम्बर या दिगम्बर तीर्थ के रूप में नहीं । वि० सं० १७१५ में भावविजय इसे एक श्वेताम्बर तीर्थ के रूप में उल्लिखित करते हैं, परन्तु वि०सं० १७४६ में ही एक अन्य श्वेताम्बराचार्य शीलविजय इसे स्पष्ट रूप से दिगम्बर तीर्थ बतलाते हैं । सभी दिगम्बर ग्रन्थकारों ने इसे दिगम्बर तीर्थ माना है ।
ग्राम के बाहर स्थित पवली मंदिर की खुदाई से एक स्तम्भ एवं कई जैन प्रतिमायें मिली हैं । कुछ जिन प्रतिमाओं पर लेख भी उत्कीर्ण हैं, जिनमें दिगम्बर आचार्यों के नाम हैं । ' इन पुरातात्विक प्रमाणों से यह तीर्थ दिगम्बर सम्प्रदाय से ही सम्बद्ध लगता है । जहाँ तक भावविजय के उक्त उल्लेख का प्रश्न है, दिगम्बर लोग उसे श्वेताम्बरों की अपनी कृत्रिम उपज बतलाते हैं । यह सत्य है कि भावविजय को छोड़ कर किसी भी अन्य श्वेताम्बराचार्य ने इसे श्वेताम्बर तीर्थ नहीं बतलाया है ।
६. सूर्पारक
आचार्य जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के "चतुरशीतिमहातीर्थनाम संग्रहकल्प” के अन्तर्गत इस नगरी का उल्लेख करते हुए यहाँ जीवन्त - स्वामी ऋषभदेव के जिनालय होने की चर्चा की है ।
राजधानी और प्राचीन भारतवर्ष की
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सूर्पारक कोंकण जनपद की एक प्रसिद्ध नगरी थी । महाभारत, ब्राह्मणीय परम्परा के पुराणों तथा बौद्ध और जैन साहित्य " में इस नगरी का उल्लेख प्राप्त होता है । इस नगरी के कई नाम मिलते हैं, यथा-सोपारंग, सोपारक, सोरपारक, सौरपारक और सुप्पारिक इत्यादि । अशोक के १४ मुख्य शिला
१. जैन, बलभद्र – पूर्वोक्त, पृ० २९८ ।
२. काणे, पी०वी० – धर्मशास्त्र का इतिहास, जिल्द ३, पृ० १४९१ ॥ ३. वही, पृ० १४९१ ।
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४. लाहा, विमलाचरण – प्राचीनभारत का ऐतिहासिक भूगोल, पृ० ४९८ जैन, जगदीशचन्द्र - भारत के प्राचीन जैन तीर्थ, पृ० ६५ ।
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६. लाहा, विमलाचरण - पूर्वोक्त, पृ० ४९८ ।
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