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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
वस्तुत: ब्राह्मणीय परम्परा में प्रचलित प्रयाग की महत्ता को देखते हुये जैन आचार्यों द्वारा भी अपनी परम्परा में इस नगरी की महत्ता दर्शाने के लिये ही उक्त कथानकों की रचना की गयी। ___ उत्तरकालीन श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने जैन आगमों में वर्णित 'पुरिमताल' को प्रयाग से समीकृत किया है, यह वस्तुतः उनका भ्रम है, क्योंकि आवश्यकनियुक्ति और उस पर मलयगिरि ई०सन् १२वीं शती का द्वितीय एवं तृतीय चरण ) द्वारा रची गयी टीका में स्पष्ट रूप से पुरिमताल को अयोध्या का एक उद्यान बतलाया गया है, जहाँ ऋषभदेव को कैवल्य प्राप्त हुआ था।' __ जहाँ तक जिनप्रभसूरि द्वारा उल्लिखित यहाँ ऋषभदेव और शीतलनाथ के जिनालय होने की बात है, आजः वहाँ कोई प्राचीन अथवा मध्ययुगीन जिनालय विद्यामान नहीं है और न ही उसके कोई अवशेष मिले हैं, जिससे उक्त तथ्य का समर्थन हो सके। तथापि इलाहाबाद के आस-पास के स्थानों से कुछ जिन प्रतिमायें अवश्य उपलब्ध हुई हैं, जिनके आधार पर पूर्व-मध्ययुग में इस क्षेत्र में जैन धर्मावलम्बियों की उपस्थिति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। संभव है कि जिनप्रभसूरि के समय में यहाँ उक्त जिनालय विद्यमान रहे हों और बाद में वे मुस्लिम शासकों की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के शिकार हो गये हों। संभवतः यही कारण है कि आज यहाँ न केवल जैनों का बल्कि हिन्दुओं का भी कोई प्राचीन मंदिर नहीं मिलता। ___आज यहां श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के अलग-अलग जिनालय हैं । दिगम्बरों के तीनों जिनालय स्थानीय चाहचंद नामक मुहल्ले में १. उज्जाणपुरिमताले, पुरी विणीआइ तत्थ नाणवरं । चक्कुप्पाया य भरहे, निवेअणं चेव दुण्हंपि ।।
आवश्यक नियुक्ति ३४२ . गमनिका-उद्यानं च तत्पुरिमतालं च उद्यानपुरिमतालं तस्मिन्, पुर्या विनीतायां तत्र ज्ञानवरं भगवत उत्पन्न मिति ....।।
आवश्यकटीका (मलय गिरि) पूर्वभाग, पृ. २२८ २. द्रष्टव्य, प्रमोदचन्द्र-स्टोन स्कल्पचर्स इन द इलाहाबाद म्यूजियम
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