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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
१३१ इसे गर्दभिका धान कहते हैं। यह नगरी गौड़देश के अन्तर्गत स्थित है।" ___कुणिक और उसके पुत्र उदायो द्वारा क्रमशः राजगृह से चम्पा
और चम्पा से पाटलिपुत्र को अपनी-अपनी राजधानी बनाने का जिनप्रभसरि ने जो उल्लेख किया है, उसका जैन-साहित्य में सविस्तार विवरण प्राप्त होता है। जहाँ तक इस नगरी को बसाने का प्रश्न है, बौद्ध साहित्य में इसका श्रेय अजातशत्रु को दिया गया है, इसके विपरीत जैन साहित्य में उदायी को इस नगरी का संस्थापक माना गया है। वस्तुतः अजातशत्रु ने ही इस नगरी की नींव डाली और बाद में उसके पुत्र उदायी ने इसे पूर्ण रूप से विकसित कर अपनी राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित किया । जिनप्रभसूरि ने स्वाभाविक रूप जैन परम्परा का ही अनुसरण किया है।
पाटलिवृक्ष की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जिनप्रभसूरि द्वारा उल्लिखित कथानक हमें धर्मोपदेशमालाविवरण और परिशिष्टपर्व में भी प्राप्त होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि जिनप्रभस रि के इस कथानक का आधार उपरोक्त ग्रन्थ ही रहे होंगे। __ जैन परम्परानुसार उदायी को, जब वह जिनालय में पूजन करने के लिये गया था, एक छद्मवेशी जैन साधु ने वहीं उसे धोखे से मार डाला। उसके पश्चात नापितगणिका का पुत्र नन्द राजा हुआ । इस १. ततो निग्गतो चंपं राय हाणि करेति ।
आवश्यकचूर्णी, उत्तरभाग, पृ० १७२ नगरनाभीए उदाइणा जिणघरं कारितं, एवं पाड लिपुत्तस्स उप्पत्ती। सो उदायी तत्थ ठितो रज्ज भुजति, .........
वही, उत्तरभाग, पृ० १७९ परिशिष्टपर्व (हेमचन्द्राचार्य:-१२वीं शती ईस्वी) ६।१८५-२३० २. मलालशेकर, जी० पी०-पालिप्रापरनेम्स, भाग १, पृ० १७८ ३. संपा० पं० लालचन्द भगवानदास गांधी-(सिंघी जैन ग्रन्थमाला-क्रमाङ्क
२८) पृ० ४१-४६ । ४. परिशिष्टपर्व ६।४२-१७४ । ५. आवश्यकचूर्णी, उत्तरभाग-पृ० १७१, १७८, १८०;
परिशिष्टपर्व ६।१७५-२३० ।
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