Book Title: Jain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 291
________________ पश्चिम भारत के जैन तीर्थ २४० स्थानों पर स्थानान्तरित कर दी गयीं । आज यहाँ कोई भी जिनालय विद्यमान नहीं है ।" १४. प्रभासपाटन कल्पप्रदीप के "चतुरशीतिमहातीर्थ नाम संग्रहकल्प" में प्रभास का भी जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख है और यहाँ भगवान् चन्द्रप्रभ के जिना - लय होने की बात कही गयी है । प्रभास आज ब्राह्मणीय धर्म के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित है, परन्तु मध्ययुग में यह जैनों का एक प्रसिद्ध केन्द्र था । धनेश्वरसूरि द्वारा रचित शत्रुञ्जयमहात्म्य ( रचनाकाल - वि० सं० १३७२ / ई० सन् १३१५ ) में यहाँ स्थित चन्द्रप्रभ जिनालय का उल्लेख मिलता है। जैन प्रबन्धग्रंथों के अनुसार वलभीभंग के समय चन्द्रप्रभ स्वामी और अम्बिका तथा क्षेत्रपाल की प्रतिमायें देवपत्तन लायी गयीं । देवपत्तन 'प्रभास' का ही एक नाम है । इससे यह संकेत मिलता है कि उक्त प्रतिमाओं के स्थानान्तरण के पूर्व यहाँ जैन मंदिर विद्यमान थे । ५ ११वीं से १३वीं शती तक यह स्थान दिगम्बरों के केन्द्र में रूप में भी प्रतिष्ठित रहा । कुमारपाल द्वारा यहाँ पार्श्वनाथ चैत्यालय का निर्माण कराया गया । यह बात हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित प्राकृतद्वयाश्रयकाव्य " से ज्ञात होती है । जूनागढ़ संग्रहालय में संरक्षित भीम 'द्वितीय' ( ई० सन् ११७८ से ई० सन् १२४१ ) के समय के एक खंडित अभिलेख के अनुसार प्रभास स्थित चन्द्रप्रभ स्वामी के चैत्य का भीम 'द्वितीय' के समय हेमसूरि द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया। इस अभि १. मुनिजयन्तविजय — शंखेश्वरमहातीर्थ, पृ० ८९, पादटिप्पणी २. ढाकी, मधुसूदन तथा शास्त्री, प्रभाशंकर - " प्रभास पाटनना प्राचीन जैन मंदिरो" स्वाध्याय - जिल्द ३, अंक ३, पृ० ३२०-३४१ ३. “वलभीभङ्गप्रबन्ध” – प्रबन्धचिन्तामणि, संपा० जिनविजय, पृ० १०८-९ “वलभीभङ्गप्रबन्ध” – पुरातनप्रबन्धसंग्रह, संपा० जिनविजय, पृ० ८३ ४. ढाकी तथा शास्त्री - पूर्वोक्त ५. कथावत, ए० बी० - संपा प्राकृतद्वयाश्रयकाव्य, खंड २, पृ० ६३७ ६. ढाकी और शास्त्री - पूर्वोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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