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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अयन
२४१ लेख में संवत् भी दिया गया है–१२ (५) अर्थात् प्रथम दो अंक स्पष्ट हैं, तीसरा अंक (५) आधा नष्ट हो चुका है और चौथा अंक समाप्त हो चुका है।'
वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा यहाँ भी जिनालयों का निर्माण कराया गया। 'मेरुतुंग' द्वारा रचित प्रबंचितामणि' और 'जिनहर्षगणि' द्वारा रचित 'वस्तुपाल दरित के अनुसार वस्तुपाल ने यहाँ अष्टापदप्रासाद का निर्माण कराया । यह निर्माण कार्य वि० सं० १२८९ ई० सन् १२३२ के पश्चात् सम्पन्न हुआ माना जाता है। यही कारण है कि उक्त काल के पूर्व के रचित ग्रन्थों में, जिनमें वस्तुपाल-तेजपाल के सुकृत्यों का वर्णन है, इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती, जैसे- सोमेश्वरकृत कोर्तिकौमुदी ( रचनाकाल ई० सन् १२३१ के लगभग ), उदयप्रभसूरि कृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य- ( ई० सन् १२२० के पूर्व ), अरिसिंहकृति-सुकृतसंकीर्तन-(ई०सन् १२३० के पूर्व रचित) आदि। उक्त ग्रंथों में वस्तुपाल द्वारा प्रभासपाटन में निर्मित अष्टापदप्रासाद की कोई चर्चा नहीं मिलती। इसीप्रकार तेजपाल द्वारा यहाँ निर्मित आदिनाथ जिनालय की चर्चा भी वस्तुपालचरित में ही प्राप्त होती है।"
प्रभासपाटन में १३वीं शती में नेमिनाथ के मंदिर होने की भी सूचना मिलती है। यहाँ स्थित चन्द्रप्रभ जिनालय के भूगर्भ में एक भग्न पाषाण खंड पर वि०सं० १३४३/ई०सन् १२८७ का एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख के अनुसार मुनि सुव्रतस्वामी की सामलियाविहार और देव
१. जोहरापुरकर, विद्याधर-जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ४, लेखाङ्क २८७ २. श्रीमत्पत्तने प्रभासक्षेत्रे चन्द्रप्रभं प्रभावनया प्रणिपत्य यथौचित्यादभ्यर्च्य च ___ निजेऽष्टापदप्रासादेऽष्टापदकलशमारोप्य तत्रत्यदेयलोकाय दानं ददानः ... ... ... । “५९ वस्तुपालतेजपालप्रबन्ध"
प्रबन्धचिन्तामणि-संपा० शास्त्री, दुर्गाशंकर, पृ० १६४ ३. तत्र चन्द्रप्रभस्वामिसदनस्यान्तिकेऽमुना।
चतुर्विंशतितीर्थेशप्रासादोऽष्टापदः कृतः॥
वस्तुपालचरित, प्रस्ताव ६, श्लोक ५३७ ४. ढाकी और शास्त्री-पूर्वोक्त ५. वही ।
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