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दक्षिण भारत के जैन तीर्थ
१२वीं शती के मध्य तक यह जैन तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, इसका श्रेय पुस्तकगच्छ, देशीगण और मूलसंघ के आचार्य कुलचन्द्रदेव के शिष्य मुनि माघनन्दी को है। यह बात ई० सन् ११६३ के एक अभिलेख से ज्ञात होती है। उक्त अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि यहाँ का रूपनारायणवसति पुस्तकगच्छ, देशीयगण और मूलसंघ से सम्बन्धित था। ई० सन् १२०० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि माघनन्दी यहाँ स्थित शावन्तवसति से सम्बन्धित थे ओर यह वसति भी उक्त गच्छ, गण और संघ से ही सम्बन्धित थी। इसी अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य सागरनन्दी सिद्धान्तदेव भी इसी सावन्तवसति से सम्बन्धित थे।४ १२वीं शती के मध्य से लेकर १५वीं शती के मध्य तक कोल्हापुर एक महत्त्वपूर्ण जैन केन्द्र रहा, इसकी गणना मूडबिद्री, पावगूड, मेलकट आदि प्रसिद्ध जैन तीर्थ केन्द्रों के साथ होती रही। ई० सन् १४४० में यहाँ के आचार्य जिनसेन भट्टारकपट्टाचार्य अपने शिष्यों और अनेक जैन श्रावकों के साथ श्रवणबेलगोला चले गये और उसी समय से इस तीर्थ का महत्त्व कम होने लगा।६ यहाँ से ई० सन् १११७ और ई० सन् ११३५ के दो अभिलेख भी प्राप्त हए हैं जो शिलाहारवंशीय राजा गण्डरादित्य और उसके सामन्त द्वारा यहाँ के रूपनारायणवसति को दिये गये दानादि की चर्चा करते हैं। जहाँ तक जिनप्रभसूरि के उक्त उल्लेख का प्रश्न है, यह उल्लेखनीय है कि यहाँ आदिनाथ के मन्दिर होने के सम्बन्ध में हमारे पास अभी तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, पर उनके समय में यह स्थान प्रसिद्ध जैन केन्द्रों में एक रहा,
१. सालेटोर, बी.ए.-मिडुवल जैनिज्म, पृ० २०६ । २. वही, पृ० १४९ । ३. वही, पृ० २०६ । ४. वही, पृ० २०६। ५. वही, पृ० ३३९ । ६. वही, पृ० ३५३ । ७. जोहरापुरकर, विद्याधर-संपा० जेनशिलालेखसंग्रह, भाग ४,
लेखाङ्क १९२, २२१ ।
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