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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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बात प्रबंधचिन्तामणि' में भी कही गयी है। उसके अनुसार उदयन के पुत्र वाग्भट्ट द्वारा वि०सं० १२११ में शत्रुजय पर नये प्रासाद का निर्माण कराया गया। आज यहाँ जो सबसे प्राचीन जिनालय विद्यमान है, वह वाग्भट्ट द्वारा निर्मित जिनालय ही है। वस्तुपाल और पेथड़शाह द्वारा भी यहाँ जिनालयों के निर्माण कराने का उल्लेख मिलता है, जिससे जिनप्रभ की बात का समर्थन होता है। वि०सं० १३६९ में यहाँ म्लेच्छों द्वारा किये गये विध्वंस का ग्रन्थकार ने जो उल्लेख किया है, वह सत्य है । इस समय तक गुर्जरदेश पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन १-२. अथाणहिल्लपुरं प्राप्तैस्तेः स्वजनस्तं वृत्तान्तं ज्ञापितौ वाग्भट्टाम्रभटौ
तानेवाभिग्रहान्गृहीत्वा जीर्णोद्धारमारेभाते। वर्षद्वयेन श्रीशजये प्रासादे निष्पन्ने उपेत्यागतमानुषेण वर्धापनिकायां वाच्यमानायां पुनरागतेन द्वितीयपुरुषेण प्रासादः स्फुटित इत्यूचे । ततस्तप्तत्र पुप्रायां गिरं निशम्य श्रीकुमारपालभूपालमापृच्छरमहं० कपर्दिनिश्रीकरणमुद्रां नियोज्य तुरङ्गमाणां चतुभिः सहस्त्रैः सह श्रीशत्रुञ्जयोपत्यकां प्राप्त स्वनाम्ना वाग्भट्टपुरनगरं निवेशयामास । सभ्रमप्रासादे पवनः प्रविष्टो न निर्यातीति स्फुटनहेतुं शिल्पिभिनिर्णीयोक्तं, भ्रमहीने च प्रासादे निरन्वयतां विमृश्याऽन्वयाभावे धर्मसंतानमेवास्तु पूर्वोद्धारकारिणां श्रीभरतादीनां पड़तौ नामास्तु, इति तेन मन्त्रिणा दीर्घदर्शिन्या बुद्ध या विभाव्य भ्रमभित्त्योरन्तरालं शिलाभिनिचितं विधाय वर्षत्रयेण निष्पन्ने प्रासादे कलशदण्डप्रतिष्ठायां श्रीपत्तनसंघ निमन्त्रणापूर्वमिहानीय महता महेन सं० १२११ वर्षे ध्वजारोपं मंत्री कारयामास । स शैलमयबिंब मम्माणीयखनीसक्तपरिकरमानीय निवेशितवान् । श्रीवाग्भटपुरे नृपतिपितुर्नाम्ना त्रिभुवनपालविहारे श्रीपार्श्वनाथं स्थापितवान् । तीर्थपूजाकृते च चतुर्विंशत्यारामानगरे परितो वप्र देवलोकस्य ग्रासवासादि दत्वा चैतत्सर्व कारयामास । "कुमारपालप्रबन्ध' प्रवन्धचिन्तामणि-सं०-दुर्गाशंकरशास्त्री, पृ०
१४१-१४२ ३. ढाकी, मधुसूदन तथा शास्त्री, हरिशंकर-“वस्तुपाल-तेजपालनी कीति
नात्मक प्रवृत्तियो' स्वाध्याय वर्ष ४, अंक ३, पृ० ३०५-३२० ४. पेथडरास, ४४-५२ ( रचनाकार मांडलिक; रचनाकाल वि० सं० १३६०/
ई० सन् १३०३ के आस-पास ) प्राचीनगूर्जरकाव्यसंग्रह, संपा० सी०डी० दलाल, पृ० १५४-१५९ । उपकेशगच्छीय कक्कसूरि द्वारा रचित नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध ( रचनाकाल वि० सं० १३९३ ) में भी उक्त बात कही गयी है।
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