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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन लौहित्य, १६--कदिनिवास, १७--सिद्धशिखर, १८ --शत्रुजय, १९-- मुक्तिनिलय, २०~-सिद्धिपर्वत और २१---पुण्डरीक। इस तीर्थ का विस्तार अवसर्पिणीकाल के विभिन्न आरों में अलग-अलग रहा। इस काल के प्रथम आरे में यह ८० योजन विस्तार वाला रहा तथा षष्ठम् और अन्तिम आरे में केवल सात हाथ विस्तार वाला हो गया। ऋषभदेव के समय यह पर्वत ५० योजन लम्बा, १० योजन चौड़ा और ८योजन ऊँचा था। नेमिनाथ को छोड़कर अन्य सभी तीर्थंकरों का यहाँ समवसरण हुआ है । भरत और बाहुबलि ने यहाँ अनेक चैत्यों और बिम्बों का निर्माण कराया। भरत चक्रवर्ती के प्रथम पूत्र और ऋषभदेव के प्रथम गणधर पुण्डरीकस्वामी इस तीर्थ से सर्वप्रथम सिद्ध हुए। उनके पश्चात् अन्य कई कोटि ऋषियों ने भी यहाँ से सिद्धि प्राप्त की। राम, नारद, जय, पंच पांडव, कुन्ती तथा अन्य कई कोटि ऋषि यहाँ से मुक्त हुए । अजितनाथ और शान्तिनाथ ने अपने कई वर्षावास यहाँ बिताये। यहाँ अनेक बार निर्माण और उद्धार कार्य कराये गये। सम्प्रति, सातवाहन, विक्रमादित्य, जावड़, पादलिप्त और आम तथा वाहड़ द्वारा यहाँ कराये गये जीर्णोद्धार प्रसिद्ध हैं। कल्कि का पौत्र मेघघोष भविष्य में यहाँ चैत्यों का निर्माण करायेगा। विक्रमादित्य के १०८ वर्ष पश्चात् मधुमतिनगरी के निवासी जावड़शाह ने यहाँ एक जिनालय का निर्माण कराया और उसमें ऋषभदेव, चक्रेश्वरीदेवी,
और कपर्दियक्ष की प्रतिमायें स्थापित करायीं। अन्य तीर्थों की यात्रा करने की अपेक्षा यहाँ की यात्रा करने पर सौगुना फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार पूजा करने से सौगुना पुण्य यहाँ जिन बिम्ब निर्माण कराने से प्राप्त होता है तथा चैत्यनिर्माण कराने से हजार गुना पुण्य प्राप्त होता है। यहाँ पर्वत पर आदिनाथ का एक भव्य जिनालय है। इसके बायीं तरफ सत्यपुरीयावतारमंदिर तथा उसके पीछे अष्टापदजिनालय विद्यमान है। दूसरे अन्य शिखरों पर श्रेयांसनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, ऋषभदेव एवं महावीरस्वामी के चैत्यालय हैं । मन्त्रीश्वर वाग्भट्ट ने यहाँ ऋषभदेवका चैत्य बनवाया। वस्तुपाल, पेथड़शाह आदि ने भी यहाँ जिनालय निर्मित कराये । वि० सं० १३६९ में म्लेच्छों ने यहाँ तोड़-फोड़ किया, तत्पश्चात् वि० सं० १३७१ में संघपति समराशाह ने यहाँ चैत्यों का पुननिर्माण कराया। पालिताना नगरी में
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