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पश्चिम भारत के जैन तीर्थ
प्रभावकचरित से ज्ञात होता है कि सुदर्शना के पश्चात् सम्प्रति, विक्रमादित्य, सातवाहन, पादलिप्त और आर्य खपुटाचार्य की परम्परा के विजयसेनसरि ने इस तीर्थ का जीर्णोद्धार कराया। इस समय तक यह जिनालय काष्ठ निर्मित ही था, जिसे बाद में आम्रभट्ट ने पाषाण निर्मित कराया । ___ दो अन्य साक्ष्यों से भी आम्रभट्ट से पूर्व इस जिनालय के विद्यमान होने का प्रमाण मिलता है।
१-श्रीचन्द्रसूरि कृत मुनिसुव्रतचरित (वि० सं० १२००)इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि संपत्कार (सांतु ) ने भृगुकच्छ स्थित शमलिका विहार पर सुवर्ण कलश चढ़ाया। सांतु सोलङ्की राजा कर्णदेव और जयसिंह सिद्धराज का मंत्री था।'
२-खरतरगच्छीय देवभद्रसूरि कृत पार्श्वनाथचरित (प्राकृत भाषामय, रचनाकाल वि०सं० ११६८) इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि "देवभद्रसूरि ने वि० सं० ११६८ में भृगुकच्छ के आमदत्त मंदिर में इसकी (इस ग्रन्थ की) रचना की। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वि० सं० ११६८ में यह जिनालय जैनों के अधिकार में था। इसके पश्चात् आम्रभट्ट ने इस जिनालय का जीर्णोद्धार कराया, जैसा कि उक्त सभी साक्ष्यों से स्पष्ट होता है। यह जीर्णोद्धार वि० सं० १२१६/ई० सन् ११६० में सम्पन्न हुआ माना जाता है।
आम्रभट्ट द्वारा पुननिर्माण कराये जाने के पश्चात् प्रभावकचरित, प्रबंधचिन्तामणि और कल्पप्रदीप में शकुनिका-विहार के बारे में आगे कुछ भी नहीं कहा गया है। इस सम्बन्ध में हमें आगे जिन ग्रन्थों से जानकारी प्राप्त होती है वे इस प्रकार हैं
१-बृहद्गच्छीय रत्नप्रभसूरि कृत उपदेशमालावृत्ति ( रचना काल, वि० सं० १२३८)। १. देसाई, मोहन लाल दलीचन्द-पूर्वोक्त, पृ० २२९, पैरा ३१२, ३१३ । २. वही, पैरा ३२४, पृ० २३७ । ३. क्राउझे, शार्लोटे-संपा० ऐन्शेन्ट जैन हीम्स, पृ० १४ । ४. देसाई, मोहनलाल दलीचन्द –पूर्वोक्त, पैरा ४८३ ।
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