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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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११. द्वारका कल्पप्रदीप के "चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रहकल्प' के अन्तर्गत द्वारका का भी उल्लेख है और यहाँ पाताललिङ्ग नेमिनाथ के मंदिर होने की बात कही गयी है।
द्वारका सौराष्ट्र जनपद की राजधानी और वैष्णव धर्म के एक प्रसिद्ध तीर्थ के रूप में प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित रही है।' इस नगरी का एक नाम “कुशस्थली' भी था। प्राचीन जैन साहित्य में इस स्थान का उल्लेख तो है, परन्तु उसे जैन तीर्थ के रूप में उल्लिखित नहीं किया गया है । मध्ययुग के प्रारम्भ में कुछ जैन ग्रन्थकारों ने इसे जैन तीर्थ के रूप में उल्लिखित किया है। जिनहर्षगणि द्वारा रचित वस्तुपालचरित ( रचना काल वि०सं० १४४१) में वस्तुपाल द्वारा यहाँ एक जिनालय निर्मित कराने का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वस्तुपाल के समकालीन किसी भी जैन ग्रन्थकार ने इस बात का उल्लेख नहीं किया है। वर्तमान युग में कुछ श्रद्धालु जैनों की मान्यता है कि यहाँ स्थित द्वारकाधीश का मंदिर वस्तुपाल द्वारा निर्मित जिनालय ही है, जिसे ब्राह्मणीय धर्मावलम्बियों ने अपने अधिकार में ले लिया है। परन्तु इस देवालय के निर्माणशैली से स्पष्ट होता है कि इसके मूल प्रासाद का कुछ भाग तो जसिंह सिद्धराज के समय निर्मित हुआ है और उनपर वैष्णव शिल्पकला के स्पष्ट चिह्न विद्यमान हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनों की उक्त धारणा अत्यन्त भ्रामक है और ब्राह्मणों की ओर से उनपर आरोप १. लाहा, विमलाचरण-हिस्टोरिकल ज्योग्राफी ऑफ ऐंशियेंट इंडिया
( हिन्दी अनुवाद ), पृ० ४७० । २. वही, पृ० ४७१। ३. जैन, जगदीशचन्द्र-भारत के प्राचीन जैन तीर्थ, पृ० ४९ । ४. उपद्वारवतीभूमिगोमतीवाद्धिसङ्गमे श्रीनेमिचैत्यमुत्तुङ्ग, निर्ममेमन्त्रि
पुङ्गवः । वस्तुपालचरित, ६।७४६, पृ० १०२ । ५. शाह, अम्बालाल पी.-जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, खंड १, भाग १, पृ० १२९ ६. ढाकी, एम. ए. तथा शास्त्री, हरिशंकर-"वस्तुपाल तेजपालनी कीर्ति___नात्मक प्रवृत्तियो' स्वाध्याय, जिल्द ४, अंक ३, पृ० ३०५-३२०
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