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पूर्व भारत के जैन तीर्थ
को चाणक्य की मदद से चन्द्रगुप्त ने गद्दी से उतार दिया और स्वयं राजा बन बैठा । उसके वंश में बिन्दुसार, अशोक, सम्प्रति आदि राजा हुए । सम्प्रति ने अनार्य देशों में भी जैन धर्म का प्रचार किया।
भद्रबाहु, महागिरि, सुहस्ति तथा वज्रस्वामी ने इस नगरी में विहार किया तथा भविष्य में प्रतिपदाचार्य यहाँ विहार करेंगे। कोभीषणगोत्रीय उमास्वाति ने इसी नगरी में तत्त्वार्थसत्र की सभाष्य रचना की । यहाँ की वादशालाओं में विद्वान् लोग वाद-विवाद करते रहते हैं । आर्यरक्षित भी १४ विद्याओं के अध्ययनार्थ दशपुर से यहीं आये थे। श्रेष्ठीसुदर्शन, जो बाद में जैन मुनि हो गये, ने यहीं पर व्यंतरी (रानी) अभया द्वारा किये गये उपसर्ग को सहन किया। स्थूलभद्र ने यहां की प्रमुख गणिका कोशा की चित्रशाला में अपना चातुर्मास ध्यतीत किया। प्रसिद्ध कलाविद् मूलदेव, महाधनिक सार्थवाह अचल, गणिकारत्न देवदत्ता आदि इसी नगरी के निवासी थे। १२ वर्षीय अकाल के समय जैन संघ सुभिक्ष के देशों में चला गया। राजा चन्द्रगुप्त उस समय भी यहीं रहा और सुस्थिताचार्य के दो क्षुल्लक शिष्यों के साथ आंखों में अदृश्यांजन लगाकर आहार ले रहा । ____ इस नगरी में १८ विद्या, स्मृति, पुराण, मन्त्र, तन्त्र, रसविद्या, अंजनगुटिका, पादप्रलेप, रत्नपारखी, स्त्री-पुरुष व पशुओं के लक्षणों के ज्ञाता और काव्य व इन्द्रजाल में निपुण लोग रहते हैं।
यहाँ बहुत से धनाढ्य व्यक्ति निवास करते थे, उनमें से कुछ तो ऐसे थे जो हजार योजन जाने में हाथी के जितने पांव पड़ते थे, उन सभी पद चिन्हों को हजार-हजार स्वर्ण मुद्राओं से भर सकते थे । कुछ ऐसे भी धनी थे जो तिलों के एक आढ़क ( एक प्रकार का माप ) बोने पर उगने से जितने तिल फलें, उतनी स्वर्णमुद्राएं अपने घर पर रखते थे। कुछ के पास तो इतनी गायें थीं जिनके मक्खन से वे वर्षाऋतु में पर्वतीय नदी को बाँध सकते थे। यहां एक दिन में इतने बालक पैदा होते थे कि उन सभी के केशों से इस नगरी को चारों ओर से घेरा जा सकता था। यहाँ दो प्रकार के धान बहुतायत पैदा होते हैं । पहले प्रकार का धान उगने पर भिन्न-भिन्न प्रकारों वाला हो जाता है। दूसरे प्रकार का धान काटने पर भी बार-बार उग आता है।
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