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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
१४७ है । नीर्थमालाओं में यहां २० तीर्थङ्करों के चरणचिह्न होने की बात स्पष्ट रूप से कही गयी है। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि जगतसेठ द्वारा यहां कराये गये जीर्णोद्धार के समय प्राचीन चरणचिह्नों को हटा कर नये चरणचिह्न स्थापित किये गये होंगे और तीर्थ के पुनरुद्धारक जगतसेठ ने जीर्णोद्धारक की जगह निर्माता के रूप में अपना नाम अंकित कर दिया होगा। संभवतः यही कारण है कि यहां कोई प्राचीन पुरावशेष नहीं मिलता। इस सम्बन्ध में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पूर्वी भारत के जैन समाज में विमल ऐसा मंत्री अथवा वस्तुपाल-तेजपाल के समान कोई दण्डनायक न था, जो सम्मेतशिखर जैसे विशाल एवं दुर्गम पहाड़ी पर ऊज्जयन्त अथवा शत्रुञ्जय की भांति विशाल एवं भव्य मंदिरों का निर्माण करा सकता।
पूर्व भारत ब-बंगाल . . १-कोटिभूमि २-पुण्ड्रपर्वत
१२. पुण्ड्रपर्वत और कोटिभूमि जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के 'चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रहकल्प' के अन्तर्गत पुण्ड्रपर्वत और कोटिभूमि का भी उल्लेख किया है और इन स्थानों पर भगवान् महावीर के चैत्यालय होने की बात कही है।
पुण्ड्रपर्वत को पुण्डवर्धन से और कोटिभूमि को कोटिवर्ष से समीकृत किया जा सकता है। ये दोनों स्थान प्राचीन काल में उत्तरी बंगाल में स्थित थे।' महावीर के समय (ईसापूर्व छठी शती) से लेकर हनसांग (ई०सन् ७ वीं शती) के समय तक बंगाल में जैनधर्म के व्यापक प्रसार के प्रमाण मिलते हैं, परन्तु पालों और सेनों के शासन काल (ई० सन् १. मजुमदार, रमेश चन्द्र-“जैनिज्म इन ऐंश्येट बंगाल"-महावीर जैन
विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रंथ, भाग-१, पृ० १३५
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