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मध्य भारत के जैन तीर्थ नहीं किया है। ढीपुरीस्तव में जिनप्रभ ने जिनालय की प्रतिमाओं और वहां के वार्षिक उत्सव, यात्रियों के दर्शनार्थ यहां आने तथा शक सं० १२५१ में संघ के साथ स्वयं यहां की यात्रा करने का उल्लेख किया है । जहां तक यहां यात्रियों के यात्रार्थ आने का उल्लेख है, उससे यही समझना चाहिए कि यहां ग्राम के आस पास के लोग ही दर्शनार्थ आते रहे होंगें। स्वयं जिनप्रभसूरि भी दिल्ली से देवगिरि जाते समय ही यहां आये रहे होंगें।
ढीपुरी तीर्थ के सम्बन्ध में दो बातें विचारणीय हैं-प्रथम तो कल्पप्रदीप को छोड़कर किसी अन्य पूर्ववर्ती जैन ग्रन्थों में इस तीर्थ का कोई उल्लेख नहीं मिलता और द्वितीय-यह तीर्थ आज विलुप्त है। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि यह तीर्थ उस भील समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था, जिसका कार्य केवल नगर, ग्राम तथा मार्ग में आने वाले सार्थों को लटना था और दूसरे वन (जंगल) में स्थित होने के कारण यह तीर्थ कभी जैनों के आकर्षण का केन्द्र न बन सका, अन्यथा जैन ग्रन्थकारों ने इसका उल्लेख अवश्य किया होता । कालचक्र के प्रभाव से धीरे-धीरे यह तीर्थ विच्छिन्न हो गया और आज इसका अस्तित्व केवल कल्पप्रदीप और प्रबन्धकोश तक ही सीमित है। जहां तक इस तीर्थ की भौगोलिक स्थिति का प्रश्न है, यह माना जा सकता है कि मालवदेश में चर्मणवती के तट पर ही कहीं यह स्थित रहा होगा।
१. कल्पप्रदीप के 'कन्यानयनीयमहावीरकल्प' में कहा गया है कि जिनप्रभ ने
सुल्तान के आदेश से दिल्ली से देवगिरि (दौलताबाद) की यात्रा की। 'कन्यानयनीयमहावीरकल्पपरिवेश में कहा गया है कि आचार्य जिनप्रभ ने सुल्तान से फरमान प्राप्त होते ही ३ वर्ष से कुछ कम समय तक रहकर दिल्ली के लिये प्रस्थान किया और सं० १३८९ में दिल्ली पहुँच गये। डिंपुरीतीर्थस्तव में स्वयं जिनप्रभ ने शक सं० १२५१/ वि.सं. १३८६ में संघसहित यहाँ की यात्रा करने का उल्लेख किया है । अतः यह मानना त्रुटिरहित होगा कि उन्होंने दिल्ली से देवगिरि जाते समय ही मार्ग में स्थित ढिपुरीतीर्थ की भी यात्रा कर ली होगी।
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