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पश्चिम भारत के जैन तीर्थ नायद्दह पासु सयंभुदेउ, हउं वंदउं जसु गुण पत्थि छेउ ।
तोर्थवन्दना ॥६॥ तपागच्छीय मुनिसुन्दरसूरि ( ई० सन् १५वीं शती) द्वारा नागहृदपार्श्वनाथस्तोत्र की रचना किये जाने का भी उल्लेख मिलता है । उनके द्वारा रचित गुर्वावला में भी इस तीर्थ का उल्लेख है ---
खोमाणभूभृत्यकुलजस्ततोऽभूत् समुद्रसूरिः स्ववशं गुरुयः । चकार नागदपार्वतीर्थं विद्याम्बुधिदिग्वसनान् विजित्य ।।
गुर्वावली श्लोक-३९ वि०सं० १४३७/ई० सन् १३८० में लिखे गये एक विज्ञप्तिपत्र, जो स्व० श्रीअगरचन्दजी नाहटा के संग्रह मे है, में भी इस तीर्थ का उल्लेख है और खरतरगच्छीय आचार्य जिनोदयसूरि द्वारा यहाँ तीर्थ यात्रा हेतु पधारने की चर्चा है ।
यहाँ नमिनाथ का भी एक जिनालय था, जिसका निर्माण माण्डवगढ़ के प्रसिद्ध श्रेष्ठी पेथड़शाह ने कराया था। इस जिनालय का उल्लेख मुनिसुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली तथा तीर्थमालाओं' में भी मिलता है -
. ... .. नागहृदे श्रीनमिः। गुर्वावली-१९६ "नागद्रहि पासं तू नमी छुटि" ।
तीर्थमाला-श्रीजिनतिलकसरिविरचित "नागद्रहि नमी लीलविलास"
तीर्थमाला-शीलविजयविरचित उक्त मन्दिर आज विद्यमान नहीं है।
आज यहां दो प्राचीन जिनालय हैं। प्रथम जिनालय अलाउ (Alau) पार्श्वनाथ के नाम से जाना जाता है २ इसे दिल्ली के बाद शाह इल्तुतमिश के शासनकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया। इस जिनालय में वि०सं० १३५६/ई०सन् १३०० तथा वि०सं० १३९१/ई० सन् १३३५ के दो लेख विद्यमान हैं। इन लेखों में जिनालय के पुनरुद्धार १. अम्बालाल पी० शाह-जैनतीर्थसर्वसंग्रह-द्वितीय भाग; पृ० ३३६-३३८ 2. Dhaky, M. A.-"Nagada's Ancient Jaina Temple"
SAMBODHI Vol-4 No. 3-4 Pp.-83-85. 3. Ibid.
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