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मध्य भारत के जैन तीर्थ
ब्राह्मणीय,' बौद्ध और जैन साहित्य में इसके बारे में सुन्दर विवरण प्राप्त होता है । मौर्य युग में यह दक्षिणापथ की एक प्रमुख नगरी थी। गुप्त युग में भी एक प्रसिद्ध नगरी के रूप में इसका महत्व बना रहा। पूर्वमध्ययुग में विदिशा का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो जाता है और उसके स्थान पर 'भाइलस्वामिगढ़' का उदय होता है। ऐसा माना जाता है कि भाइलस्वामिन् यहां स्थित एक विशाल मंदिर में मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित सूर्यदेव की प्रतिमा का नाम था, बाद में यही नाम इस नगरी के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। ११वीं शती में अलबिरूनी' और १२वीं शती में हेमचन्द्राचार्य ने इस नगरी का उल्लेख किया है। जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के 'चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रहकल्प' के अन्तर्गत इस नगरी का उल्लेख करते हुए यहां देवाधिदेव के मन्दिर होने की बात कही है।
जैन मान्यतानुसार उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत ने विदिशा नगरी का नाम भाइलस्वामिन रखा और यहां एक जिनालय का निर्माण कराया उसमें उदायन से प्राप्त जीवन्तस्वामी की काष्ठ चन्दन से निर्मित प्रतिमा स्थापित की। आर्यमहागिरि और सुहस्ति १. सरकार, दिनेशचन्द्र-स्टडीज इन ज्योग्राफी ऑफ ऐन्शियन्ट एण्ड
मिडुवल इंडिया, पृ० ४३ । २. भट्टाचार्य, बी० सी.---हिस्टोरिकल ज्योग्राफी ऑफ मध्यप्रदेश,
पृ० १९४ । ३. मेहता और चन्द्रा-प्राकृत प्रापर नेम्स, पृ० ६६० । ४. भट्टाचार्य-पूर्वोक्त-पृ० १९७ । ५. पाटिल, डी० आर० ---कल्चरल हेरिटेज आफ मध्यभारत, (ग्वालियर
१९५२) पृ० ९८-९९ ।। ६. त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित-हेमचन्द्र, पर्व १०,सर्ग २, श्लो० ६०४
७. वही। ८. जैन, जगदीशचन्द्र-भारत के प्राचीन जैन तीर्थ, पृ० ५७ ।
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