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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
१६७ नाम से जानी जाती थी, अब ढीपुरी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। यात्रीसंघ वहां आने लगे। इसी प्रकार तृतीय व्रत के पालन से उसे मालवराज के सामन्त का पद मिला और चौथे से मोक्ष प्राप्त हुआ।" ___ "ढोंपुरीस्तव' नामक कल्प के अन्तर्गत उन्होंने वङ्कचूल द्वारा निर्मित जिनालय, उसमें रखी प्रतिमाओं तथा वहां अपनी यात्रा का उल्लेख किया है, जो इसप्रकार है
__ "चर्मणवती के तट पर स्थित विशाल शिखरों वाला महावीर स्वामी के जिनालय का निर्माण वङ्कचूल द्वारा सम्पन्न कराया गया है। इसमें पार्श्वनाथ की चर्मणवती से प्राप्त प्रतिमा भी स्थापित की गयी, जो महावीर की प्रतिमा की अपेक्षा बहुत छोटी है अतः यह चेल्लण पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। इस जिनालय में आदिनाथ एवं नेमिनाथ की भी प्रतिमायें हैं। मंदिर के द्वार पर अंबिका तथा क्षेत्रपाल की प्रतिमा स्थापित हैं। प्रतिवर्ष षौष दशमी को यहां उत्सव होते हैं । शक सम्वत् १२५१ में उन्होंने (ग्रंथकार ने) इस तीर्थ की संघ के साथ यात्रा की।" __ वङ्कचूल की कथा का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम ग्रंथ है धर्मोपदेशमालाविवरण' जो आचार्य कृष्णषि के शिष्य जयसिंहसूरि द्वारा वि०सं० ९१५/ई० सन् ८५९ में रचा गया। इसके पश्चात् कल्पप्रदीप में उक्त कथा पायी जातो है जिसे बिना किसी परिर्वतन के राजशेखरने प्रबन्धकोश में उल्लिखित कर लिया और जिनप्रभ का कहीं नामोल्लेख भी नहीं किया। १५वीं से १८वीं शती के अनेक रचनाकारों ने भी इस कथा का वर्णन किया है, इनमें जैन और जैनेतर दोनों शामिल हैं, परन्तु जिनप्रभ और राजशेखर को छोड़कर किसी अन्य ग्रन्थकार ने ढीपुरी तीर्थ और वहां वङ्कचल द्वारा निर्मित जिनालय का कोई उल्लेख १. "सत्पुरुष-सङ्ग वङ्कचूलिकथा''---धर्मोपदेशमालाविवरण ( सं० लाल
चन्द भगवान गांधी ) पृ० ६७-७२ ।। २. “अथ वङ्कचूलप्रबन्धः"-प्रबन्धकोश (सं० मुनि जिनविजय )
पृ० ७५-७८ । ३. नाहटा, अगरचन्द्र-"वङ्कचूल की कथा की प्राचीनता एवं तत्सम्बन्धी
रचनायें," जैनसिद्धान्तभास्कर, जिल्द २२, पृ० ५१-५६ ।
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