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उत्तर भारत के जैन तीर्थ इस प्रकार स्पष्ट है कि ग्रन्थकार द्वारा उल्लिखित उपरोक्त दोनों कथानक जैन परम्परा पर आधारित हैं।
जिनप्रभ द्वारा उल्लिखित बल नामक मुनि की कथा का उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र के १२वें अध्याय में है। इससे ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों द्वारा कभी-कभी निम्न जातियों से दीक्षित होने वाले जैन मुनियों का निरादर भी किया जाता था और वे लोग उसे शांतिपूर्वक सहन करते थे। संभवतः साधना में जाति के स्थान पर तप के महत्त्व को दर्शाने वाला एक आदर्श कथानक होने से जिनप्रभ ने इसे उल्लिखित किया है। ___आवश्यकचूसे की जिन दो कथाओं का ग्रंथकार ने उल्लेख किया है, वे आज भी उसी रूप में आवश्यकनियुक्ति तथा उसकी चूर्णी' में पायी जाती है।
अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के बारे में कल्पप्रदीप के अतिरिक्त जैन साहित्य में अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता। ब्राह्मणीय परम्परा के पुराणों में हरिश्चन्द्र की कथा प्राप्त होती है ।२ ग्रंथकार ने निश्चय ही उन्हीं के आधार पर यह कथा उल्लिखित की है।। __ काशी-माहात्म्य के सम्बन्ध में जो मान्यता ब्राह्मणीय परम्परा में प्रचलित रही है, उसका ग्रन्थकार ने स्वाभाविक ही खंडन किया है । जैन परम्परा में कर्म सम्बन्धी मान्यता, ब्राह्मणीय परम्परा में प्रचलित कर्म सम्बन्धी मान्यता से भिन्न है अतः एक जैन धर्मावलम्बी मुनि द्वारा ऐसी मान्यताओं का खंडन करना अस्वाभाविक नहीं लगता।
इस नगरी में बसने वाले ब्राह्मणों तथा परिव्राजकों की एक बड़ी संख्या का ग्रन्थकार ने जो उल्लेख किया है, वह यहां आज भी देखी जा सकती है। __जिनप्रभ के इस विवरण की सबसे उल्लेखनीय बात है वाराणसी नगरी का चार भागों में विभाजन । अन्यत्र इस प्रकार के किसी विभा. १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १३०२-१३०६;
आवश्यकचूर्णी -उत्तर भाग, पृ० २०२-२०४ । २. पाण्डेय, राजबली-~-पुराणविषयानुक्रमणिका, प्रथम भाग, पृ० ४७३ ।
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