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उत्तर भारत के जैन तीर्थ
स्थापत्यकला के प्रसिद्ध अध्येता प्रो० एम. ए. ढाकी ने इस दुर्लभ प्रतिमा को ई०सन् की ५वीं शती का तथा अन्य कलाकृतियों को ९वीं और ११वीं शती का बतलाया है। मंदिर के व्यवस्थापकों की अज्ञानतावश यहाँ खुदाई से प्राप्त अनेक मूल्यवान् जैन कलाकृतियां मंदिर की नींव में डाल दी गयीं। यहां से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आज जहां पार्श्वनाथ का मंदिर है, वहीं ५वीं शताब्दी में भी रहा होगा। दन्तखात तालाब की स्थिति भी यहीं आस-पास मानी जा सकती है।
जिनप्रभसूरि के वाराणसी नगरी सम्बन्धी उक्त विवरण में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उन्होंने यहां सुपाश्र्वनाथ के जन्म होने की बात तो कही है, परन्तु यहां के किसी स्थान-विशेष से उसकी पहचान, उसकी अवस्थिति अथवा सुपार्श्वनाथ का कोई मंदिर-स्मारक आदि का कोई उल्लेख नहीं किया है । इसी प्रकार वे वर्तमान सारनाथ स्थित बौद्ध आयतन-धर्मेक्षासंनिवेश (धमेखस्तूप ) की तो चर्चा करते हैं, परन्तु वहीं श्रेयांसनाथ के जन्मस्थान के रूप में आज प्रतिष्ठित स्थान का कोई निर्देश नहीं करते।
वाराणसी से धर्मेक्षास्तूप (धमेखस्तूप ) और बौद्ध मंदिर की दूरी भी वही है जो जिनप्रभसूरि ने बतलायी है । उन्होंने चन्द्रपुरी नगरी को वाराणसी से अढ़ाई योजन दूर बतलाया है जो वर्तमान में भी लगभग ३२ किलोमीटर होता है। मध्ययुगीन तीर्थ-यात्रियों ने भी इस तीर्थ का उल्लेख किया है।' वाराणसी में आम श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के २० से अधिक जिनालय हैं, परन्तु वे सभी अर्वाचीन हैं ।
१०. विन्ध्याचल पर्वत विन्ध्यपर्वतमाला सामान्य रूप से बिहार प्रान्त की पश्चिमी सीमा से प्रारम्भ होकर अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त होकर दक्षिणपश्चिम दिशा में गुजरात-काठियावाड़ तक पहुँचती है और इस प्रकार १. विजयधर्मसूरि-प्राचीनतीर्थमालासंग्रह, पृ० १३-१५ । २. तीर्थ-दर्शन खंड १, पृ० ८२-८४ ।
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