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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
१०१ शताब्दी तक यह नगरी जैन धर्म के महान केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित रही।' मूर्तियों के सिंहासनों और आयागपट्टों पर जो लेख मिले हैं उनमें से कुछ पर कनिष्क, हविष्क, वासुदेव आदि कुषाण नरेशों के नाम, राज्यकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, इससे सिद्ध होता है कि ये ई० सन् के प्रारम्भिक काल के हैं। जैन धर्म के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से भी ये लेख बड़े महत्त्व के हैं। इन लेखों में मति के संस्थापकों ने अपने नाम और राजा के नाम के अलावा अपने धर्मगुरुओं के नाम, उनके सम्प्रदाय, उपाधि आदि का भी उल्लेख किया है। इन लेखों में अनेक गण, कुल, और शाखाओं के नाम आये हैं जो कल्पसूत्र की स्थविरावली के गण, कुल और शाखा के समीम हैं। इस कारण इनका और भी महत्त्व बढ़ जाता है। ___सामाजिक इतिहास की दृष्टि से भी इन लेखों का बड़ा महत्त्व है। इन लेखों में गणिका, नर्तकी,लुहार, गन्धिक,सुनार, ग्रासिक तथा श्रेष्ठी आदि जाति के लोगों के नाम मिलते हैं जिन्होंने मति आदि का निर्माण प्रतिष्ठा एवं दान-कार्य किये थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व जैनसंघ में सभी व्यवसायों के लोग धर्माराधन करते थे। अधिकांश लेखों में दातावर्ग के रूप में स्त्रियों की प्रधानता है। वे बड़े गर्व से अपने माता-पिता, सास-श्वसुर, पुत्र-पुत्री-आदि को आत्मीय बनाती थीं। इन लेखों से यह भी स्पष्ट होता है कि उस समय लोग अपने व्यक्तिवाचक नामों के साथ माता का नाम जोड़ते थे; जैसे वात्सीपुत्र, तेवगीपुत्र, वैहिदरीपुत्र, गोतिपुत्र आदि । ६
यहाँ से प्राप्त एक प्रतिमालेख जो कुषाण सं० ७९ अर्थात् वासुदेव के शासन काल का है, ई० सन् की गणना के अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठा ७९+७८ = १५७ ई० में हुई थी। इस लेख में देव१. स्मिथ-पूर्वोक्त, पृ० ५। २. वही, पृ० ५। ३. वही, पृ० ६ । ४. चौधरी, गुलाबचन्द्र-जैनशिलाले वसंग्रह, भाग ३, प्रस्तावना, पृ० १४ । ५. वही, पृ० १४ । ६. वही, पृ० १४ ।
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