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जन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
की चर्चा की है। उन्होंने इसे वाराणसी नगरी से अढ़ाई योजन दूर स्थित बतलाया है :
अस्याश्च सार्धयोजनद्वयात्परतश्चन्द्रावती नाम नगरी, यस्यां श्रीचन्द्रप्रभोर्गर्भावतारादिकल्याणिकचतुष्टयमखिल भुवन जनतुष्टिकरमजनिष्ट । कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प-पृ० ७४ ___ मध्ययुग में लिखी गयी श्वेताम्बर परम्परा की तीर्थमालाओं में भी जिनप्रभसूरि की मान्यता का ही अनुसरण किया गया है। इस सम्बन्ध में यह विशेषरूप से उल्लेखनीय है कि मध्ययुग में ही लिखी गयी दिगम्बर परम्परा की चैत्यपरिपाटियों, तीर्थवन्दनाओं आदि में इस तीर्थ की चर्चा नही मिलती, इससे प्रतीत होता है कि इस युग में यहां दिगम्बर परम्परा का कोई जिनालय नहीं था।
अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि वर्तमान चन्द्रावती की प्राचीनता क्या है ? क्या जैनों के अलावा किसी अन्य परम्परा से भी इसका सम्बन्ध रहा है ? क्या यहां से कुछ पुरावशेष प्राप्त हुये हैं, जिनके आधार पर इसकी ऐतिहासिकता को स्पष्ट किया जा सके ? |
सर्वप्रथम हम चन्द्रावती की भौगोलिक स्थिति की चर्चा करेंगे। यह स्थान वाराणसी से लगभग २० मील उत्तर-पूर्व में गंगा नदी के पश्चिमी तट पर एक प्राचीन एवं विस्तृत टीले पर अवस्थित है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा यह प्राचीन स्मारक घोषित है। यहां श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के एक-एक जिनालय हैं, जो क्रमशः वि० सं० १८९२ और वि० सं० १९१३ में निर्मित हैं। यह बात इन जिनालयों पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होती है।
सन १९१२ की बाढ़ में गंगा नदी की धारा द्वारा यहां टीलों के रूप में अवस्थित भग्नावशेषों के तीव्र कटाव से एक पाषाण पेटिका प्राप्त हुई, जिसमें गहड़वालशासक चन्द्रदेव (वि०सं०११४२-५७) के दो ताम्रपत्र प्राप्त हये । प्रथम ताम्रपत्र वि०सं० ११५० और द्वितीय १. सूरि, विजयधर्म-संपा० प्राचीनतीर्थमालासंग्रह पृ० १३-१४ २. साहनी, दयाराम -"चन्द्रावती प्लेटस ऑफ चन्द्रदेव -वि० सं० ११५०
-११५६, इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द XIV पृ० १९२-२०७
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