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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
करते हुए प्रदेशों की राशि या प्रदेश समूह को अस्तिकाय कहा गया है- अस्तिशब्देन प्रदेशाः क्वचिदुच्यन्ते ततश्च तेषांवा कायाः अस्तिकायाः। इस अस्तिकाय के द्वारा सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या हो जाती है। 'अस्तिकाय' को व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के आधार पर अधिक स्पष्टरूपेण समझा जा सकता है। वहाँ पर तीर्थंकर महावीर से उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधर ने जो संवाद किया, वह इस प्रकार है। प्रश्न - भंते! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है? उत्तर - गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता) प्रश्न - भंते! क्या धर्मास्तिकाय के दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात और असंख्यात प्रदेशों को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? उत्तर - गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न - भंते! एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को क्या ‘धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? उत्तर - गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न - भंते! किस कारण से ऐसा कहा जा सकता है ? उत्तर - गौतम! जिस प्रकार चक्र के खण्ड को चक्र नहीं कहते, किन्तु सम्पूर्ण को चक्र कहते हैं। इसी प्रकार गौतम! धर्मास्तिकाय के प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता है। यावत् एक प्रदेश न्यून तक को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। प्रश्न - भंते! फिर धर्मास्तिकाय किसे कहा जा सकता है ? उत्तर - गौतम! धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, जब वे कृत्स्न, परिपूर्ण, निरवशेष एक के ग्रहण से सब ग्रहण हो जाएं, तब गौतम! उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है।
धर्मास्तिकाय की भाँति व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय का भी अखण्ड स्वरूप में अस्तिकायत्व स्वीकार किया गया है। यह अवश्य है कि जहाँ धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, वहाँ आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय के