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जैन-दर्शन के नव तत्त्व इस प्रकार जीव और अजीव का ज्ञेय में अंतर्भाव होता है; आम्नव, बंध और पाप का हेय में; संवर, निर्जरा और मोक्ष का उपादेय में। उसी प्रकार पुण्य का हेय, ज्ञेय और उपादेय इन तीनों में अंतर्भाव होता है। हेय, ज्ञेय और उपादेय तत्त्वों को समझने के लिए नौ तत्त्वों का निरूपण आवश्यक है।
नौ तत्त्वों में जीवन का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व व्यक्ति को देहादि पौद्गलिक प्रपंच से भिन्न अन्तर्चेतना का दर्शन कराते हैं। आम्रव, पुण्य, पाप और बंध ये चार तत्त्व व्यक्ति को हमेशा बंधनयुक्त कों का, तथा उनके कारणों से राग-द्वेषादि का परिचय देते हैं। जिस साधना से जीव रागद्वेष आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है, ऐसी साधना के लिए संवर और निर्जरा तत्त्व मार्गदर्शन करते हैं और यह मुक्ति सारे कमों का हमेशा के लिए क्षय है।
नौ तत्त्वों की श्रद्धा से मोक्षमार्ग का ज्ञान होता हैं क्योंकि जीव तत्त्व के ज्ञान से यह समझ में आता है कि 'मैं जीव हूँ।' अजीव तत्त्व से यह समझा जाता है कि शरीरादि अजीव हैं। पुण्य तत्त्व के वर्णन से यह समझा जाता है कि सुखदायक और अनुकूल अवस्था का कारण पुण्य है। पाप तत्त्व से ज्ञान होता है कि दुःखदायक और प्रतिकूल अवस्था का कारण पाप है। पुण्य-पाप के फल से संसारी-जीव अपने को सुखी और दुःखी मानता है। पाप-कर्म और पुण्य-कर्म जब आत्मा के पास बंध के लिए आते हैं तब उनका आस्रव होता है और आत्मा के प्रवेश के साथ जब वे कर्म चिपकते हैं तब उसे बंध कहते हैं।
आस्रव और बंध तत्त्वों से संसारी जीव कैसे अशुद्ध होता है यह दिखाया गया है। बाद में संवर तत्त्व से बंध को रोकने का मार्ग दिखाया गया है। निर्जरा तत्त्व से कर्म से धीरे-धीरे छूटने का मार्ग बताया गया है और मोक्ष तत्त्व से आत्मा कर्ममुक्त होकर कैसे पवित्र बनता है, यह दिखाया गया है।
___ इस प्रकार नौ तत्त्वों का ज्ञान और उन पर श्रद्धा होना मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है। नवतत्त्वों के ज्ञान के बिना कर्मबंध के कारण से दूर होना अशक्य है, इसलिए नौ तत्त्वों को मोक्षमार्ग भी कहा गया है।
जैन-धर्म को विश्वधर्म भी कहा जा सकता है क्योंकि इस धर्म में सब धों का समावेश किया जा सकता है। किसी से राग-द्वेष नहीं, सभी समान हैं, राब धर्मों की दृष्टि सही है। किसी को किसी से मत्सर नहीं करना चाहिए ऐसा
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