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ज्ञानार्णवः
हेमचन्द्र सूरिके सामने ज्ञानार्णव रहा है और उन्होंने उसमें विस्तारसे प्ररूपित विषयको कुशलताके साय व्यवस्थित रूपमें संक्षेरीकरण करके अपने योगशास्त्र में स्थान दिया है। इसकी चर्चा हम आगे विस्तारसे करनेवाले हैं अत: उसे यहाँ इतना कहकर ही छोड़ देते हैं। सम्भव है उसे पढ़कर कुछ पाठक हमारे इस मतसे सहमत हो सकें। इस प्रकारसे यदि आ. शुभचन्द्र हेमचन्द्र सूरिके पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं तो उनका सद्भाव ११-१२ वीं शताब्दीके मध्य मानना युक्तिसंगत ठहरेगा। हेमचन्द्र सूरिका समय सुनिश्चित है । उनका जन्म विक्रम सं. ११४५ में और स्वर्गवास वि. सं. १२२९ में हुआ हैं।'
३. ग्रन्थका स्वरूप
प्रस्तुत संस्करण में समस्त ग्रन्य ३९ प्रकरणोंमें विभक्त है। इसके पूर्व रायचन्द्र जैन शास्त्रमालासे प्रकाशित (१९२७) संस्करणके अनुसार वह ४२ प्रकरणोंमें विभक्त रहा है। इन प्रकरणोंका विभाग स्वयं ग्रन्यकारके द्वारा किया गया नहीं दिखता। वह सम्भवतः टीकाकारके द्वारा किया गया है। प्रकरणों के जैसे नाम हैं तदनुसार वहाँ क्रमबद्ध विषयका विवेचन देखने में नहीं आता, बीच-बीच में क्रमविहीन अन्यान्य विषयोंकी भी चर्चा की गयी है व पुनरुक्ति भी उसमें अधिक हई है। उदाहरणस्वरूप २५वें प्रकरणको लेते हैं। उसका नाम 'ध्यानविरुद्धस्थान' है। यहाँ सर्वप्रथम धर्मध्यानके निरूपणके लिए प्रेरणा करते हुए उसके भेद-प्रभेदोंके साथ फल पर्यन्त वर्णन करनेको सूचना की गयो है ( 1267-68 )। आगे मैत्री आदि चार भावनाओंकी प्रशंसा करते हुए उनके स्वरूपको दिखलाया गया है व पुनः उसकी प्रशंसा की गयी है ( 127085)। फिर यह कहा गया है कि श्रेष्ठ मुनिजन ध्यानकी सिद्धिके लिए कुछ स्थानों को प्रशस्य और कुछको निन्द्य बतलाते हैं ( 1287 )। तत्पश्चात् कुछ ऐसे स्थानोंका निर्देश किया गया है जो ध्यानमें बाधक हो सकते हैं ( 1289-1301 )। यह वर्णनक्रम प्रकरण के अनुरूप नहीं रहा। प्रकरणके अनुसार यदि यहाँ प्रथम ही ध्यानके अयोग्य स्थानोंका निर्देश कर दिया गया होता तो वह जिज्ञासुके लिए अधिक सरल और सुबोध हो सकता था। अथवा प्रकरणका नाम केवल 'ध्यानस्थान' ही रहा होता और जैसी कि श्लोक 1287 में सूचना की गयी है, तदनुसार यदि यहाँ ध्यानके योग्य और अयोग्य दोनों ही प्रकारके स्थानोंका निरूपण कर दिया गया होता तो वह प्रकरणके अनुरूप व अधिक सुविधाजनक रहा होता।
आगेका २६वां प्रकरण 'प्राणायाम' है। पर यहाँ भो प्रारम्भके ४० श्लोकोंमें क्रमविहीन ध्यानके योग्य स्थान और आसनोंका निर्देश करते हुए योग्य स्थान व आसनपर ध्यानारूढ़ हुए ध्याताकी प्रशंसा की गयी है और तत्पश्चात् प्राणायामको प्ररूपणा की गयी है।
आगे २७वां प्रकरण 'प्रत्याहार' है । यहाँ प्रत्याहारके स्वरूपको दिखलाते हुए समाधिसिद्धिके लिए उसे प्रशंसनीय बतलाया गया है ( 1456-59 )। उसकी प्रशंसा करने के साथ यहाँ पूर्वोक्त प्राणायामको अस्वास्थ्यकर, कष्टप्रद व मुक्तिकी प्राप्तिमें बाधक कहा गया है ( 1459-65 )। प्राणायामसे होने वाली इस अस्वस्थताका निर्देश यदि पूर्वोक्त प्राणायामके ही प्रकरणमें कर दिया गया होता तो उससे अध्येताको एक ही साथ उसकी हेयोपादेयताका परिज्ञान हो सकता था। पर ऐसा न करके वहाँ तो उसे सिद्धान्तके पारंगत मुनियों के द्वारा ध्यानकी सिद्धि के लिए प्रशंसनीय व मनकी स्थिरताका असाधारण कारण भी कहा गया है ( 134-2-43)। आगे इसी प्रकरणमें इन्द्रियों के निरोधपूर्वक साम्यभावका आलम्बन लेकर मनके ललाटदेशमें स्थिर करने की प्रेरणा करते हुए कुछ शरीरगत ध्यानस्थानोंका निर्देश किया गया है, जहाँ चित्तको विश्रान्त होना चाहिए। यह एक धारणाका रूप है ( 1467-69 )।
१. कुमारपालप्रबन्ध ( उ. जिनमण्डन गणि ) पृ. ११४ ।
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