________________
१८
ज्ञानार्णवः
उपसकाध्ययन तथा आ. अमितगति प्रथम ( 10-11वीं शतो) विरचित योगसारप्राभत आदि ग्रन्थोंका आश्रय लिया है। इनके अतिरिक्त अमितगति-श्रावकाचारके कर्ता आ. अमितगति (द्वितीय) भी यदि आ. शभचन्द्र के पर्ववर्ती या समकालीन हो सकते हैं तो सम्भव है उनके श्रावकाचारका भी उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थकी रचनामें उपयोग किया हो। इसका कारण यह है कि प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें जिन पिण्डस्थ-पदस्थ आदि ध्यानोंका कुछ विस्तृत वर्णन किया गया है उनका विशेष वर्णन अमितगति-श्रावकाचारके 15वें परिच्छेदमें उपलब्ध होता है । पर वर्णनशैली दोनोंकी कुछ भिन्न प्रतीत होती है।
उपर्युक्त ग्रन्थों में से कुछके पद्य भी प्रस्तुत ज्ञानार्णव में 'उक्तं च' आदिके निर्देश पूर्वक अथवा बिना किसी प्रकारको सूचनाके भी पाये जाते हैं। यथा
कटस्य कर्ताहमिति संबन्धः स्याद द्वयोर्द्वयोः ।
ध्यानं ध्येयं सदात्मैव संबन्धः कीदशस्तदा ।। यह पद्य इष्टोपदेश ( 25 ) का है, जिसे ज्ञानार्णवमें 1510 संख्याके अन्तर्गत उद्धृत किया गया है।
इसी प्रकार पुरुषार्थ सिद्धयुपायका 116 वाँ पद्य ज्ञानार्णवमें 825 संख्याके अन्तर्गत, तत्त्वार्थवार्तिक प. 14 पर तथा उपासकाध्ययन ( 23 ) में उद्धृत 'हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं' आदि पद्य 315 संख्याके अन्तर्गत, उपासकाध्ययनके 21, 22 व 241 ये तीन पद्य क्रमसे 313, 314 व 395 संख्याके अन्तर्गत उद्धृत पाये जाते हैं।
__ आदिपुराणके 21 वें पर्व के 102, 131, 176 व 177 ये पद्य ज्ञानार्णव में ज्योंके त्यों अथवा कुछ शब्दभेदके साथ क्रमसे 1328, 1616, 2162 और 2163 संख्याके अन्तर्गत पाये जाते हैं। इनमें अन्तिम दोके पूर्व में 'उक्तं च' का निर्देश किया गया है।
तत्त्वानुशासनके श्लोक 218 को ज्ञानार्णवमें 'तथान्यैरप्युक्तम्' कहकर 1072 संख्याके अन्तर्गत उद्धृत किया गया है । तत्त्वानुशासनके ऐसे भी कुछ श्लोक ज्ञानार्णवमें पाये जाते हैं जिनमें किसीका पूर्वार्ध समान है तो किसीका उत्तरार्ध समान है, किसीके 1-2 चरणों में समानता पायी जाती है ।
इस विवेचनसे इतना तो निश्चित हो जाता है कि आ. शुभचन्द्र अमृतचन्द्र सूरि और सोमदेव सूरिके बाद हुए हैं, विक्रमकी 11वीं शताब्दीके पूर्व उनके होनेकी सम्भावना नहीं रहती। इसके कितने समय बाद वे हुए हैं, यह जानने के लिए यह देखना होगा कि उनके इस ग्रन्थका प्रभाव अन्य किन ग्रन्थोंके ऊपर रहा है।
स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाके अन्तर्गत गा. 487 की भट्टारक शुभचन्द्र ( 16वीं शती) विरचित टीकामें 'तथा ज्ञानार्णवे' कहकर ज्ञानार्णवके क्रमसे 2201, 2195, 2196, 2197 और 2202 इन श्लोकोंको उद्धृत किया है।
भट्टारक शुभचन्द्र के पूर्ववर्ती पं. आशाधर ( १३वीं शती) ने भगवती आराधनाकी गा. १८८७ की
१. इसका स्पष्टीकरण आगे पृथक-पृथक रूपसे किया जायेगा। २. यहाँ यह एक विशेषता देखने में आयी है कि प्रस्तुत संस्करण में पाटण प्रतिके अनुसार श्लोक 2195 का
उत्तरार्ध इस प्रकार ग्रहण किया गया है-प्रकृतयस्तदा । अस्मिन् सूक्ष्मक्रिये ध्याने देवदेवस्य दुर्जयाः ॥ पर इसके रामचन्द्र जैन शास्त्रमालासे प्रकाशित ( ई. 1927 ) संस्करण के अनुसार उसका उत्तरार्ध इस प्रकार रहा है-प्रकृतयो द्रुतम् । उपान्त्ये देवदेवस्य मुक्तिश्र प्रतिबन्धकाः ॥ यही पाठ पाटण प्रतिको छोड़कर अन्य सभी प्रतियोंमें रहा है। भट्टारक शुभचन्द्र के सामने भी यही पाठ रहा है और तदनुसार उसी रूपमें उन्होंने उसे उद्धृत कर दिया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org