________________
प्रस्तावना
१. ज्ञानार्णव
जैसी कि ग्रम्यकारके द्वारा स्वयं सूचना की गयी है, प्रस्तुत ग्रन्थका नाम ज्ञानार्णवे है। यह नाम उसका सार्थक ही है। कारण यह है कि उसमें अनेक विषयोंका वर्णन किया गया है। अतएव ग्रन्यके अध्ययन से अध्येताको उन सब विषयोंका ज्ञान प्राप्त होनेवाला है । इस हेतुसे यदि उसे 'ज्ञानार्णव - ज्ञानका समुद्र' कहा गया है तो यह संगत ही है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थकार के द्वारा इसे व्यानशास्त्र भी कहा गया है। सो यह भी ठीक है, क्योंकि इसमें प्रमुखता से ध्यानका वर्णन किया गया है। अन्य कितने ही विषयोंका जो इसमें वर्णन किया गया है वह उस ध्यानके प्रसंगसे ही किया गया है । इसके प्रत्येक प्रकरणकी अन्तिम पुष्पिका में इसका उल्लेख 'योगप्रदीपाधिकार' के रूपमें किया गया है। योग और ध्यान ये समानार्थक शब्द हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ यतः ध्यानके दिखलाने में दीपकका काम करता है, अतः 'योगप्रदीपाधिकार' कहने से भी उसकी सार्थकता प्रकट होती है ।
२. आचार्य शुभचन्द्र और उनका समय
3
"
प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता आचार्य शुभचन्द्रने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थको रचकर अपना कहीं कोई परिचय नहीं दिया । यह उनकी निरभिमानताका द्योतक है । इस अभिप्रायको उन्होंने स्वयं व्यक्त भी कर दिया है M जिसे केवल शिष्टता न समझकर उनकी आन्तरिक भावना ही समझना चाहिए । ग्रन्थके परिशीलनसे यह तो ज्ञात हो ही जाता है कि सिद्धान्तके मर्मज्ञ आचार्य शुभचन्द्र बहुश्रुत विद्वान् एवं प्रतिभासम्पन्न कवि भी रहे हैं। ग्रन्थकी भाषा सरस सरल व सुबोध है। कविता मधुर व आकर्षक है। ग्रन्थमें जो अनेक विषयोंके साथ इतर सम्प्रदायोंकी भी चर्चा व समीक्षा की गयी है उसीसे उनकी बहुश्रुतताका पता लग जाता है। उनके समय में जो भी योगविषयक साहित्य प्रचलित रहा है उसका उन्होंने गम्भीरतापूर्ण अध्ययन किया है तथा अपनी इस कृति में उन्होंने उसका समुचित उपयोग भी किया है । इसका उदाहरण प्राणायाम और पिण्डस्थपदस्थ आदि ध्यानोंका विस्तृत वर्णन है।
ग्रन्यकारके समयका विचार करने के लिए यह देखना होगा कि उन्होंने इस ग्रन्थकी रचनायें पूर्ववर्ती किन ग्रन्थोंका आश्रय लिया है। प्रस्तुत ग्रन्थकी रचनाएँ उन्होंने आचार्य पूज्यपाद ( वि. 5- 6ठी शताब्दी ) विरचित समाधितन्त्र व इष्टोपदेश, भट्टा कलंकदेव ( वीं शती) विरचित तस्यार्थवार्तिक, आचार्य जिनसेन ( 9वीं शती) विरचित आदिपुराण ( 21वाँ पर्व ), अमृतचन्द्र सूरि ( 10वीं शती ) विरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, रामसेनाचार्य ( 10वीं शती) विरचित तत्त्वानुशासन, सोमदेव सूरि (11वीं शती) विरचित
१. देखिए श्लोक 11 और 2230 ।
२. देखिए श्लोक 2229 ।
३. न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया ।
कृतिः किंतु मदीयेयं स्वबोधायैव केवलम् ॥ 1-19।
[2]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org