Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 32
________________ MSS. MATERIAL On the left side there is the illustration of Vrisabh Teerthankar. Below that there is an illustration of a monk in sitting pose with a rosery of beeds in his left hand and a bunch of peacock feathers in his right hand near the elbow. On the right side there are illustrations of two female figures, each with four hands. A detailed study of these figures is necessary. They are pointed in five colours i.e. red, white, black, yellow and green. On the second page there is a similar illustration of the map of Loka having the images of two Teerthankaras in the upper corners and the monks in the lower corners. The MS. is written in black ink. The marginal lines are black. Red ink is used between the marginal black lines also. This red colour is used to spot numbers of verses and colophons. Here and there is yellow paste to cover the unwanted letters. This MS. contained interleaniar notes giving explainatary equivalents of difficult words. The number of notes is pretty large. The conjuncts with r is the first member the consonant is double. Generally Anuswār is written for Parasavarna. It opens thus: ॥६०॥ ॐ नमो वीतरागाय। शानलक्ष्मीधनाश्लेष etc. and ends thus : ज्ञानार्णवस्य...भवार्णवः ॥७॥ ग्रंथागं श्लोकसंख्या २७०० छ ॥छ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥छ श्री सं. १४८५ वर्षे कार्तिक सुदि ११ सोमदिने। निजप्रतापप्रभावपराकृततरुणतरणिमण्डलान् । नयविनय विवेकसौराज्यरञ्जिताखण्डलानां । महाराजाधिराजश्रीमोकलदेवराज्यपवर्तमानानां। त्रिदिवपति पत्तनसमृद्धिस्पर्धिश्रीकान् । श्रीमतिदेवकुलवाटके । श्रीनेमिनाथचैत्यालये। श्रीमूलसंधे। सरस्वतीगछे। बलात्कारगणे । नन्दिसंधे। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये अनेकपट्टावलीविराजमाने । श्रीशुभकीर्तिदेवपट्टान्वये धवलयशधवलमहाधवलमहासिद्धान्तसुकण्ठीकृतरायराजगुरुपोषित जिनमतश्रीधर्मचन्द्रदेवाः। तत्पट्टे । उपशममेरुचाल्यमाणेन समवसरणेन सह विराजमानान् । भट्टारक श्रीरत्नकीर्तिदेवाः। तत्पट्टे संस्थितवान्। महाराजाधिराजसुरत्राणमहमद साहि अनुरञ्जितचित्तान्। तत्पराजावलीसंस्थितसुरत्राणपेरोजसाहि अनुरंजितचित्तान्। अनेकम्लेच्छसंस्तुतचरणकमलान् । षट्तर्क चक्रवर्तिनिर्जितपरमतपाषण्डिनां कृतगर्वोपहारान् । भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रदेवान् । तत्पट्टे संस्थितवान् । अष्टव्याकरणीयरहस्यरंजितविद्वज्जनचित्तान् । भट्टारक श्रीपद्मनन्दिदेवान् । तच्छिक्षपाण्डित्यकमलाकमलिनीकमलबन्धून् निश्चयरत्नत्रयतन्निष्ठान् । मुनिश्रीदेवेन्द्रकीर्तिदेवान् । तद्दीक्षिततपोधनउत्तमक्षमारिदशलक्षणोधमोद्गरप्रकटनसमर्थान् । मुनिश्रीविद्यानन्दिदेवोपदेशात् हूंबडान्वये अनुव्रतादिद्वादशवतभारभरणोपेतः। निर्मलश्रीजिनेन्द्रचरणसरोजराजीराजहंसान् वात्सल्यदशविधवैयावतकरणकतत्परान् । सा जैता तज्जायासम्यक्त्वगुणगुणशालिनी साहू। तयोः पुत्र सकलशास्त्रविशारदान्। निजसौजन्येन श्रीकृतशत्रुमित्रान् । दानैकमहीतले कल्पवृक्षान् । परोकारकरण परायणान् । अखिलमहीतलप्रसिद्धान् । साहुभोजा भार्या वसू । तयोः पुत्र धरणउ । भोजाभ्राता द्वितीयजिनचरणाराधनतद्गतचित्तान्। देवपूजादिषट्कर्मनिरतान् । साहु गोसल भार्या करमी । एतेषां मध्ये साधुभोजा ज्ञानावर्णीकर्मक्षयार्थे ज्ञानार्णवग्रन्थं लिखापि दत्तं मुनिश्रीविद्यानन्दिदेवयोग्यं ॥शुभं भवतु॥ दातृलेषकपाठयोः । शानवाशानदानेन निर्भयो ऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं निर्व्याधी भेषजा भवेत् । अपर स्मिन् भवे जीवो बिभर्ति सकलं श्रुतम् । मोक्षसौख्यमवाप्नोति शास्त्रदानफला नरः॥ लिषित्वा लेषयित्वा वा साधुभ्यो दीयते श्रुतम् । व्याख्यायते तं थवा तेन शास्त्रदानं तदुच्यते ॥ वर्धतां जिनशासनं । शुभं भवतु लेखकपाठयोः । सं. १४८५ वर्षे कार्तिक सुदि ११ सोमवासरे रुद्रपल्लीयगछे वाचनाचार्य श्रीनरचन्द्रशिष्यणीमिलितं । मुनिविद्यानंद लिषितं पठनार्थ। आचन्द्रार्क चिरं नन्द्यात् । ॥छ॥ श्रीदेवगुरुभ्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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