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प्रस्तावना
टीकामें 'उक्तं च ज्ञानार्णवे विस्तरेण' ऐसी स्पष्ट सूचना करते हए ज्ञानार्णवके क्रमसे 2186, 2187, 2189, 2190, 2191, 2193 और 2194 इन श्लोकोंको उद्धृत किया है।
पं. आशाधरके पूर्ववर्ती पद्मप्रभ मलधारिदेव ( १३वीं शती) ने नियमसार गा. ३९ की टोका 'तथा चोक्तं' कहकर निम्न पद्यको उद्धृत किया है जो ज्ञानार्णवमें 2144 संख्याके अन्तर्गत है
निष्क्रिय करणातीतं ध्यान-धारणजितम् ।
अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छु क्लमिति पठ्यते ॥ नियमसारकी टीकामें 'धारण' के स्थान में 'ध्येय' और 'इति पठ्यते' के स्थान में 'योगिनो विदुः' इतना पाठभेद है। पर यह श्लोक स्वयं ज्ञानार्णवकारके द्वारा रचा गया नहीं दिखता। इसका कारण यह है कि उसके पूर्व में ज्ञानार्णवकी अन्य प्रतियों में यद्यपि 'उक्तं च' ऐसी सूचना नहीं उपलब्ध होती है, पर उसकी प्राचीनतम पाटण प्रतिमें 'उक्तं च' ऐसा निर्देश उसके पूर्व में किया गया है। इससे यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि उक्त श्लोक ज्ञानार्णवसे ही नियमसारकी उक्त टीकामें उद्धृत किया गया है। सम्भव है वह ज्ञानार्णवसे पूर्व अन्य किसी प्राचीन ग्रन्यमें भी रहा हो ।
___ आचार्य प्रभाचन्द्र ( ११-१२वीं शती ) ने रत्नकरण्डक श्रावकाचारके श्लोक ५-२४ को टोकामें 'क्षेत्रं वास्तु धनं' आदि एक श्लोकको उद्धृत किया है। यह श्लोक 'वास्तु क्षेत्र' जैसे कुछ साधारण शब्द भेदके साय ज्ञानार्णवमें 822 संख्याके अन्तर्गत पाया जाता है ।
इन प्रमाणोंसे आ. शुभचन्द्र सोमदेव सूरि और आ. प्रभाचन्द्रके मध्यवर्ती सिद्ध होते हैं।
इसके अतिरिक्त जिस पाटण प्रतिके आधारसे प्रस्तुत ग्रन्थका सम्पादन हुआ है वह विक्रम संवत् १२८४ में लिखी गयी है। इसको प्रशस्ति, जो ग्रन्थ के अन्तमें दे दी गयी है, उसमें इसके पूर्व यह सूचना की गयी है कि आर्यिका जाहिणोने अपने कर्मक्षयार्थ ज्ञानार्णव नामक पुस्तकको लिखाकर ध्यानाध्ययनमें निरत योगी शुभचन्द्र के लिए दी। इसके पश्चात् वहाँ यह निर्देश किया गया है कि सहस्रकीर्ति के लिए इसे केशरिसुत वीसलने संवत् १२८४ में लिखा। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रतिको लिखाकर आर्यिका जाहिणीने योगी शुभचन्द्र के लिए दी वह सहस्रकीर्ति देनेके लिए संवत् १२८४ में लिखी गयी प्रस्तुत प्रतिके भी पूर्वको होना चाहिए।
कुछ भी हो, इतना तो निश्चित है कि ग्रन्थको कुछ प्रतियां सं. 1284 के पूर्व भी लिखी जा चुकी थीं व ग्रन्थ पठन-पाठनमें आने लगा था । इसका एक अन्य कारण यह भी है कि भगवतो आराधनाकी जिस मूलाराधना टीका में पं. आशाधरके द्वारा ज्ञानार्णवके पूर्वोक्त श्लोक उद्धृत किये गये हैं वह वि. सं. १२८५ के पूर्व लिखी जा चुकी थी। इसका प्रमाण यह है कि पं. आशाधरने जिनयज्ञकल्प ( प्रतिष्ठासारोद्धार ) की प्रशस्तिमें उसके रचे जाने की सूचना स्वयं की है। यह जिनयज्ञ कल्प वि. सं. 1285 में लिखकर समाप्त किया गया है । पं. आशाधरको मूलाराधनाके रचने और ज्ञानार्णवके परिशीलनमें भी समय लग सकता है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि ज्ञानार्णव उससे कमसे ४०-५० वर्ष पूर्व या उससे भी अधिक समय पूर्व लिखा जाना चाहिए । इस परिस्थिति में आ. शुभचन्द्रके समयकी सम्भावना सोमदेव सूरि विरचित उपासकाध्ययनके रचनाकाल वि. सं. १०१६ के बाद और वि. सं. १२३५ के पूर्व की जा सकती है।
इस कालको कुछ और संकुचित करने के लिए हम हेमचन्द्र सूरि विरचित योगशास्त्रको लेते हैं। उसका हमने जो तुलनात्मक रूपसे ज्ञानार्णवके साथ अध्ययन किया है उससे हम इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि
१. यह श्लोक पाटण प्रतिमें नहीं रहा है। २. देखिए पू. ७०१ ।
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