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प्रवचन-७४ HO अनेक प्रकार की यात्राओं में महत्त्वपूर्ण एवं जरूरी यात्रा है = लोकयात्रा! लोकयात्रा यानी उचित लोकव्यवहार!
० बुद्धिहीन व्यक्ति लोकयात्रा को पहचान नहीं पाता है और - वह निष्फल जाता है। ० धर्म की क्रियाओं में रचे-पचे लोग भी जब लोकविरुद्ध कार्यों से
का त्याग नहीं करते तब लोगों में, समाज में धर्म की निन्दा होती है। ० धर्म, परिवार, समाज और समाज व नगर के अग्रणी लोगों
की मानसिकता से पूरे परिचित रहो। ० संघ के साथ दुर्व्यवहार करना या संघ की बात को ठुकराना उचित नहीं है, हालाँकि संघ को भी सब कुछ जिनाज्ञा के
मुताबिक ही करना चाहिए। ० परमात्मा के नामस्मरण में भी बड़ी ताकत छुपी हुई है। प्रतिपल चमत्कार हो सकते हैं, चाहिए हमारा आस्थासभर समर्पण परमात्मा के चरणों में।
र प्रवचन : ७४
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्म का प्रतिपादन करते हुए बाईसवाँ सामान्य धर्म बताते हैं : योग्यतानुसार लोकव्यवहार | ग्रन्थकार ने 'लोकयात्रा' शब्द का प्रयोग किया है। __ जैसे आप लोग तीर्थयात्रा करते हो, रथयात्रा करते हो, पदयात्रा करते हो... वैसे यह लोकयात्रा करने की है। तीर्थयात्रा वर्ष में एक-दो बार करते होंगे, रथयात्रा भी वर्ष में २/३ ही निकलती होंगी...पदयात्रा तो कभी-कभी ही करते होंगे! लोकयात्रा करना सीखो :
तीर्थयात्रा करते हुए आप लोग परमात्मा का स्मरण करते हो, तत्काल चमत्कार देखने को नहीं मिलता। रथयात्रा निकल गई और पदयात्रा कर ली, तो तत्काल उसका कोई गलत 'रि-एक्शन' देखने को नहीं मिलता...परन्तु यदि
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